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मक‌ई

मक‌ई

जय प्रकाश कुवंर
जब हमनी छोटा बच्चा रहनीसन तब गाँव देहात में एगो गाना खुब सुनल जात रहे, " मक‌ईया रे तोहर गुन गावलो ना जाला " । एकर माने त तब बुझात ना रहे बाकिर सुने में अच्छा लागे, एह वजह से हमनी का भी इ गाना खुब गांई सन। हाँ, एगो बात जरूर बुझाव की मक‌ई अनाज का बारे में इ गाना बनल बा।
ओइसे हमनियों का धरे उपरवार खेत में मक‌ई के खेती होत रहे। गाँव के सब लोग थोड़ा बहुत मक‌ई के खेती जरूर करत रहे। हमनी देखले रहनीसन जे सावन भादों में जे मक‌ई के फसल होखे ओकरा के भद‌उवा मक‌ई कहल जाव। ओह मक‌ई के दाना छोट छोट होत रहे आ पीयर रंग के दाना होखे। कुछ लोग ओकरा के नवगछिया मक‌ई कहे। मक‌ई का खेत में मचान बनावल जात रहे, जवना पर दिन चाहे रात में बैठ सुत के खेत मालिक मक‌ई का बाल के कौआ चिर‌ई आउर कुकुर सियार से अगोरिया करत रहे। मक‌ई के कुछ लोग जनेरा भी कहत रहे।
बहुत बाद में जब हमनी सेयान हो ग‌इनीसन तब बैसाख महीना में भी कुछ लोग मक‌ई के फसल तैयार करे लागल। ओकर नाम बैसखुआ मक‌ई कहात रहे।कुछ लोग एह मक‌ई के शंकर मक‌ई कहत रहे। एह मक‌ई के दाना थोड़ा बड़ा आउर सादा रंग के होखे। एह तरीका से गाँव देहात में मक‌ई के दुगो फसल होखे लागल, भादेआ मक‌ई आउर बैसखुआ मक‌ई।
मक‌ई के खेती करे खातिर उपरवार खेत जवना के माटी हल्का होला, ओकरा के खुब जुताई करके लोग तैयार करे। जुताई का पहिले गोबर के खाद खेत में दियात रहे। बुआई करे का समय हर बैल आ हरवाह का पीछे पीछे एक आदमी गमछा में मक‌ई के दाना लेके एक एक दाना हराई में डालत रहे। पुरा खेत में दाना डालला का बाद हेंगा से जुताई के माटी के बराबर कर दिहल जात रहे।
जब मक‌ई के पौधा जमीन से उपर निकल जाव तब खेत में खर पतवार के साफ करे खातिर सोहनी होत रहे। जहाँ जहाँ मक‌ई के पौधा घना निकल ग‌इल रहे, उहां से सोहनी का समय खर पतवार के साथ घना पौधा के भी निकाल दिहल जात रहे। एह से बाकी मक‌ई के पौधा स्वस्थ आउर मजबूत होत रहे। एकर एगो आउर फायदा रहे जे घास पात का साथे मक‌ई के पौधा मवेशी के चारा हो जात रहे। सांच कहीं त मक‌ई के उपयोगिता ओकरा फसल के नाजुक अवस्था यानि येही समय से ही शुरू हो जात रहे।
जब मक‌ई के फसल तैयार हो जात रहे आउर पौधा में बाल लागे के शूरू हो जात रहे तब जैसे दाना दुधा होखे, तबहीं से होरहा खाये के शुरू हो जात रहे। दुधा मक‌ई के आग में होरह के होरहा ( भुट्टा) खाये के एगो अलगे स्वाद आउर मजा रहे। होरहा खाये खातिर जवन मक‌ई के पौधा काटल जात रहे, ओकरा से आदमी का स्वादिष्ट होरहा खाये के मिले, आउर हरा मक‌ई के डंटल मवेशी खातिर बढ़ियां चारा रहे।
मक‌ई के फसल जब पकके तैयार हो जाव तब ओकरा के काटके खेत में एक जागा गांज लगा के रख दिहल जात रहे। मकई के कटाई डंटल के जमीन से एक बिता उपर से होत रहे। नीचे जवन छोड़ दिहल जात रहे ओकरा के खूंटी कहात रहे। जब कुछ दिन धूप लाग के मक‌ई के डंटल आउर गांज सुख जात रहे तब डंटल से मक‌ई के बाल तोड़ कर अलग कर लिहल जात रहे। बाल घर में आ जात रहे आउर डंटल खेत में आउर सुखे खातिर पसार दिहल जात रहे।
बाल के इकट्ठा करके दुआर पर लाठी से पिटाई करके मक‌ई अलादा कर लिहल जात रहे आउर मक‌ई के लेंढ़ा सुखा के जलावन के काम में लग जात रहे। आलादा क‌इल मक‌ई सुखा के बोरी में उपयोग खातिर सुरक्षित रख लिहल जात रहे।
खेत में मक‌ई के डंटल जब अच्छा से सुख जात रहे तब ओकरा के बोझा बांध के घर में रख लिहल जात रहे। डंटल मवेशी के चारा के लिए भी काम आवे आउर ओकरा से खाना बनावे खातिर जलावन के भी काम होत रहे। खेत में नीचे पड़ल मक‌ई के खूंटी खेत के जोत कोड़ के बाहर निकाल लिहल जात रहे जवना से जलावन के काम होत रहे। एह तरीका से सालों भर मवेशी चारा आउर जलावन के काम मक‌ई का डंठल से चलत रहे।
घर में तैयार रखल मक‌ई सालों भर भुंजा, सतुआ, मक‌ई के भात, कच्चा मक‌ई के आटा आउर मक‌ई के सतुआ के मक‌ई के रोटी आदि तरह तरह के रूप में आदमी के खाये के काम में आवत रहे। एकरा अलावा मक‌ई के व्यवहार अनेक तरह से मवेशी सब के दाना के रूप में भी घास भुसा के साथ होत रहे।
अब जब हमनी बच्चा से बुढ़ा हो ग‌इनीसन आउर गाँव छोड़ शहर में रहे लगनीसन तब दिखाई पड़त बा जे मक‌ई अब गाँव देहात के अनाज ना रह ग‌इल बा। मक‌ई अब गाँव देहात से लेकर शहर में आपन पैठ बना लेहले बा। गाँव का लोग के मक‌ई मिले ना मिले बाकिर शहर में मक‌ई के पापकर्न आउर सतुआ फास्टफुड बन ग‌इल बा। शादी ब्याह का पार्टी में मक‌ई के रोटी आउर सरसों के साग के एगो अलगे काउन्टर लागत बा, जवना पर सबसे बेसी भीड़ रहत बा। एह आइटम का बिना पार्टी अधुरा रहत बा आउर कमजोर पार्टी गिनात बा।
आज कल सेहत खातिर मक‌ई के तरह तरह के आइटम बाजार में भरल बा, जेकरा के लोग अधिक कीमत पर खरीद रहल बा आउर खा रहल बा।
इ सब देख के अब बुझात बा कि सच में मक‌ई के जतना भी गुण गावल जाव, लगता कि कम ही बाटे।
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