भाई बहिन का त्यौहार है
रचनाकार -डॉ मुकेश असीमित
आज –भाई दूज —रिश्ते की उस महीन डोर का उत्सव है जो जिम्मेदारी, आदर और भरोसे से बुनी जाती है। दीवाली के उजास के बाद जब घरों की लौ थोड़ी धीमी पड़ती है, उसी लौ का अर्थ इस दिन रिश्तों के माथे पर फिर चमकना होता है—बहिन की प्रार्थना के रूप में, भाई के वचन के रूप में।
भाई–बहन का यह त्योहार हमें इस अनूठे रिश्ते की अहमियत का स्मरण करा देता है। कहा जाता है—माँ-बाप के बाद कोई आपके लिए इतनी सच्ची दुआ नहीं माँग सकता जितनी बहन माँगती है। बहन हमेशा यही चाहती है कि उसका भाई खूब तरक्की करे, धन-दौलत से परिपूर्ण हो; फिर चाहे वह त्योहार हो, शादी-समारोह हो, बहन चाहती है कि भाई उसके लिए कोई सुन्दर उपहार दे या अच्छा नेग दे दे। इसे स्वार्थ मत समझिए—यह एक भावनात्मक रणनीति भी है, रिश्तों को चलाने का अपना-सन तरीक़ा। यदि रिश्तों को एक तरह का कारोबार मान भी लें, तो भाई–बहन का रिश्ता एक हाई-रिटर्न इन्वेस्टमेंट जैसा है: तुम एक पैसा दोगे, तुम्हें दस मिले—ऐसा मामला है जी , पर जो दिया जाता है वह लौटकर रिश्ते की शक्ल में मिलता है।
देखिए, बहनों ने मुझे कोई अपना ब्रांड एम्बेसडर नहीं बनाया, न ही किसी लॉबिंग के लिए छोड़ा है; जाओ और भाइयों को हमारा सन्देश छोडो ।” आदमी है न—जब तक कोई उसकी दुखती रग पर हाथ नहीं रखे , वह एक फूटी कौड़ी नहीं सरकाए ।सिर्फ दुआओं के लिए कौन भला खर्च करे l भगवान् को भी चढ़ावा के बदले में हाई रिटर्न इन कैश और काइंड मांगते हैं l माना आपके घर में नव किलकारी गूंजी , किन्नर भाइयों/बहिनों को पता लगा ,आ धमकेंगे आपके दरवाजे पर और आप भाई लोग झट से 5-10 हजार निकालकर दे देंगे —ऐसा भी होता है;आपको डर है की खाली हाथ चले गए किन्नर तो बद्दुआ लग जायेगी ,संकट आ जाएगा l बहिन तो कभी बद्दुआ दे ही नहीं सकती ।
बहन आपके द्वार आती है तो उसके दिल में सिर्फ और सिर्फ आपकी भलाई की दुआ होती है—चाहे आप उसे कम दें, या ज़्यादा, मीठे शब्दों से ही उसे मना लीजिए। और यदि वह ब्याहिता है, वो संपन्न घारान में ब्याही है तो आपका दिया हुआ समुन्दर में बूँद के बराबर ,या विपिन्न घराने में ब्याही है तो आप का दिया उसकी विपिन्नाता दूर नहीं कर सकता l बस उसकी तो आपसे यह उम्मीद होती है कि उसके ससुराल में उसको दिए देन दायजे को लेकर कोई बात नहीं बने —वह चाहती है कि वहाँ उसे मान-सम्मान मिले; सास-ससुर की ताने-टिप्पणी, तुलना-तुलनाओं से उसे बचाने वाला कोई हो। बहन के लिए पीहर में माँ का आँचल और भाई का कन्धा ही सुरक्षा-आधार होते हैं—जब भी वह दुखी हो, उसे चाहिए एक ऐसा भाई जिस पर वह अपना सिर रखकर रो दे।
आजकल की जिंदगी में जहाँ एक-दो ही बच्चे रह गए हैं, और रिश्तों की नीति बदल गई है, भाई–बहन के ये जवाहरात कहीं खोते से दिखते हैं—मौसी-फूफी, चाची-चचेरे रिश्ते तो दूर की कौड़ी हो गए । बचपन से ही बहन अपने भाई के प्रति कितनी परोक्ष रूप से पोजेसिव रहती है—खुद लड़ लेगी पर माँ-बाप के सामने उसके हज़ार शरारतें छिपा देगी । वह अपने प्यारे भाई के प्यार के लिए जुगाड़ लगाएगी, माँ-बाप को समझाएगी, उसकी कमियों पर पर्दा डालेगी। लडकी पहले पैदा हुई ,लड़का बाद में आता है तो लड़के की किलकारी से ज्यादा बड़ी बहिन की किलकारी गूंजती है , दिन रात माँ से ज्यादा खुद बच्चे को लिए लाड लड़ाती रहती है l यही इस रिश्ते की खासियत है।
इस रिश्ता की अहमियत बताने की ज़रूरत ही नहीं—यदि संवेदनाएँ और संस्कार जीवित रखेंगे, तो निश्चित ही यह रिश्ता अपने आप में एक अनोखा, अटूट बन्धन बना रहेगा।
आज के समय में यह पर्व और भी प्रासंगिक है। तेज़ रफ़्तार जीवन, अलग-अलग शहर, अलग समय-क्षेत्र—बहुत कुछ हमें ‘संपर्क’ से ‘संबंध’ की दूरी पर ले जाता है। भाईदूज हमें साल में एक दिन री-कनेक्ट नहीं, री-कमिट कराता है। बहन का तिलक केवल दीर्घायु का आशीष नहीं—यह जीवनशैली, स्वास्थ्य, मानसिक संतुलन, काम-काज, और परिवार के प्रति भाई की प्रतिबद्धता की भी याद दिलाता है। भाई का उपहार केवल ‘तोहफ़ा’ नहीं—यह वादा भी है कि वह बहन की शिक्षा, करियर, निर्णय और आत्मसम्मान के लिए खड़े रहने के नैतिक कर्तव्य को निभाएगा। यूँ समझिए—तिलक की लाल रेखा विश्वास की नीति बन जाती है: असहमति भी आदर के साथ, दूरी भी संवाद के साथ, व्यस्तता भी संवेदना के साथ।
और हाँ, कुछ छोटे-छोटे आधुनिक संकल्प इस दिन से जोड़ दें तो पर्व साल भर जीवंत रहता है—महीने में एक दिन ‘सिब्लिंग-चेक-इन’, स्वास्थ्य/वित्त/कार्य पर पारदर्शी बातचीत, माता-पिता की जिम्मेदारियों का साझा रोडमैप, और किसी एक सामाजिक सेवा में साथ-साथ भागीदारी (रक्तदान, वृक्षारोपण, पशु-सेवा, या किसी ज़रूरतमंद परिवार की सहायता)। अनुष्ठान जब नीति बन जाता है, तभी संस्कृति दीर्घायु होती है—यही तो यम-यमुना की कथा का आधुनिक सार है।
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