लोकतंत्र में जनता मालिक, फिर नेता नौकर बनने को इतने लालायित क्यों?
✍️ डॉ. राकेश दत्त मिश्र
भारत में लोकतंत्र को “जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा शासन” कहा गया है। इसका सीधा अर्थ है कि इस व्यवस्था में जनता ही सर्वोच्च होती है, वही मालिक है, और जनप्रतिनिधि उसके सेवक या प्रतिनिधि मात्र। परंतु आज जब हम अपने चारों ओर देखते हैं, तो एक बड़ा प्रश्न सामने आता है — जब जनता मालिक है, तो ये राजनीतिक दल और नेता उस “नौकर” की कुर्सी पाने के लिए करोड़ों रुपये क्यों खर्च करते हैं? आखिर एक सेवक बनने की इतनी लालसा क्यों?
दरअसल, आज का लोकतंत्र अपने मूल स्वरूप से धीरे-धीरे दूर होता जा रहा है। लोकतंत्र का अर्थ अब सेवा नहीं, सत्ता बन गया है। जनसेवा की भावना पीछे छूट गई है, और कुर्सी तक पहुँचने का मार्ग पैसा, जाति, प्रचार और प्रभाव के जाल में उलझ गया है। अब “जनप्रतिनिधि” का अर्थ बदलकर “सत्ता प्रतिनिधि” रह गया है।
1. सत्ता नहीं, सेवादारी का भाव खो गया है
लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि को जनता का सेवक कहा जाता था। गांधीजी ने कहा था — “राजनीति सेवा का माध्यम होनी चाहिए, सत्ता का साधन नहीं।” लेकिन आज के समय में सत्ता ही साधन और साध्य दोनों बन गई है। नेता सेवा करने नहीं, शासन करने की मानसिकता लेकर राजनीति में आते हैं। यही कारण है कि “नौकर” कहलाने के बावजूद वे मालिक की तरह व्यवहार करते हैं।
2. राजनीति का बाज़ारीकरण
राजनीति अब विचारधारा या जनभावना से नहीं, पूंजी और प्रचार से चलती है। टिकट पाने के लिए धनबल चाहिए, चुनाव जीतने के लिए और अधिक धन चाहिए, और सत्ता में आने के बाद उस धन की भरपाई के लिए भ्रष्टाचार का सहारा लिया जाता है। यही कारण है कि एक सीट के लिए करोड़ों रुपये खर्च करना भी “निवेश” की तरह देखा जाने लगा है — जहाँ जनता मालिक नहीं, बल्कि उपभोक्ता बन गई है।
3. दलों में लोकतंत्र का अभाव
राजनीतिक दलों के भीतर लोकतंत्र खत्म हो चुका है। वहाँ भी वंशवाद, गुटबाजी और अवसरवाद का बोलबाला है। जनता के हितों की जगह व्यक्तिगत या पारिवारिक स्वार्थ प्राथमिक हो गए हैं। एक परिवार या व्यक्ति का दल पर पूरा नियंत्रण होना “लोकतांत्रिक दलों” का मज़ाक बन चुका है। जब दल के अंदर लोकतंत्र नहीं है, तो बाहर जनता के बीच लोकतंत्र कैसे बचेगा?
4. राजनीति में प्रवेश का उद्देश्य बदल गया
आज राजनीति को समाजसेवा का मंच नहीं, बल्कि वैभव और शक्ति का द्वार समझा जा रहा है। जहाँ पहले लोग त्याग और बलिदान की भावना से राजनीति में आते थे, वहीं आज लाभ और पद की आकांक्षा से। जनसेवा का भाव, नैतिकता, ईमानदारी और निष्ठा — ये सब धीरे-धीरे हाशिए पर चले गए हैं।
5. जनता की भूमिका भी बदलनी होगी
लेकिन केवल नेताओं को दोष देना भी पूर्ण सत्य नहीं है। जब जनता अपने अधिकारों के प्रति सजग नहीं रहती, जब वोट जाति, धर्म, शराब या पैसों के प्रभाव में दिया जाता है, तब लोकतंत्र केवल दिखावा बनकर रह जाता है। जिस दिन जनता सही मायने में “मालिक” की भूमिका निभाएगी — अपने नौकरों से सवाल पूछेगी, जवाबदेही मांगेगी, और ईमानदार लोगों को आगे लाएगी — उसी दिन लोकतंत्र फिर से जीवंत हो उठेगा।
निष्कर्ष के तौर पर हम कह सकतें है कि लोकतंत्र की रक्षा केवल संविधान से नहीं, बल्कि जनचेतना से होती है। अगर जनता जागरूक नहीं रही, तो लोकतंत्र केवल एक नाम मात्र रह जाएगा। नेताओं का नौकर बनना तो लोकतंत्र की गरिमा है, लेकिन जब नौकर ही मालिक बनने लगें, तो व्यवस्था चरमरा जाती है।
इसलिए आवश्यकता है कि जनता अपने अधिकार और कर्तव्यों दोनों को समझे, और यह तय करे कि सत्ता किसी की निजी संपत्ति नहीं, बल्कि समाजसेवा का माध्यम है। तभी लोकतंत्र फिर से अपने असली अर्थ — “जनता का शासन, जनता के लिए” — को प्राप्त कर सकेगा।
– डॉ. राकेश दत्त मिश्र
(राष्ट्रीय महासचिव, भारतीय जन क्रांति दल)
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