बाजारवाद
होने लगी घरों में जबसे, महिलायें समझदार,बाजार में बढने लगा, दिन प्रतिदिन व्यापार।
व्यापारी भी खुश बहुत, देख बाजार की चाल,
खाने को व्यंजन, बदला कपडों का व्यवहार।
नित व्यंजन खाने के, नये बनने लगे,
घर के खाने होटलों में, सजने लगे।
दाल रोटी के लिये, बाहर का चलन,
घर में पिज़्ज़ा बर्गर, पैर जमाने लगे।
घर का आचार, बात पुरानी हो गयी,
कचरी पापड़ की बात, पुरानी हो गयी।
उरदी मंगौडी, आलू की बडियाँ हैं कहाँ,
मक्का की रोटी, बात पुरानी हो गयी।
चुल्हे पर बनी दाल, बाहर खाने जाते हैं,
व्रत त्योहार सामान, बाहर लाने जाते हैं।
कौन बनाये घर पर, इतना काम फैलाये,
थोड़े पैसे लगेंगे ज्यादा, बच्चे समझाते हैं।
बाज़ार में विकल्प बहुत, घर पर एक बनेगा,
पसन्द नही एक, कोई दूजा विकल्प बनेगा।
सबकी पसन्द व्यंजन, घर में कौन बनायेगा,
दिनभर मेहनत फिर भी, कुछ का मुँह बनेगा।
अ कीर्ति वर्धन
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