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अस्वीकृत पद्मश्री और अमर साहित्य: आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री

अस्वीकृत पद्मश्री और अमर साहित्य: आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री

सत्येन्द्र कुमार पाठक
हिंदी साहित्य के क्षितिज पर आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री (5 फरवरी 1916 – 7 अप्रैल 2011) एक ऐसे उज्ज्वल नक्षत्र की तरह हैं, जिनकी आभा उनके साहित्य की गहराई, उनके विराट व्यक्तित्व के स्वाभिमान और जीवन मूल्यों के प्रति उनके अडिग समर्पण से बनी है। बिहार राज्य के गया जिले के डुमरिया प्रखण्डान्तर्गत मैगरा में शाकद्वीपीय ब्राह्मण कुल में जन्मे शास्त्री जी ने मुजफ्फरपुर के चतुर्भुज स्थान स्थित 'निराला निकेतन' को अपनी कर्मभूमि बनाया और वहीं पर उन्होंने अपनी अंतिम साँस ली। शास्त्री जी केवल कवि नहीं थे, बल्कि वह एक भारतीय हिंदी लेखक, समालोचक, उपन्यासकार, नाटककार, जीवनीकार और निबंधकार थे, जिनकी लेखनी ने साहित्य की लगभग हर विधा को समृद्ध किया। उनके साहित्य-संसार का विस्तार इतना व्यापक है कि उन्हें किसी एक विधा की सीमा में बाँधना असंभव है। उनकी प्रारंभिक रचनाएँ संस्कृत में थीं, जिनमें "बंदी मंदिरम" और "काकली" विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, जिसके कारण उन्हें 'अभिनव जयदेव' भी कहा जाने लगा। बाद में महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की प्रेरणा से उन्होंने हिंदी में विपुल लेखन किया। निराला जी से उनका गहरा आत्मीय संबंध था, जिसका उल्लेख उनके संस्मरण 'अनकहा निराला' और 'स्मृति के वातायन' में मिलता है। शास्त्री जी की कालजयी कृतियों में उनका सात खंडों में चलने वाला महाकाव्य "राधा" प्रमुख है। इस महाकाव्य में उन्होंने राधा के चरित्र को एक नए आयाम से देखा और उनके जीवन तथा व्यक्तित्व को आधुनिक संदर्भों में प्रस्तुत किया। इसी तरह, उनका उपन्यास "कालिदास" भी उनकी गहन साहित्यिक दृष्टि का प्रमाण है। यह कृति कथ्य, शिल्प और भाषा के सौंदर्य के कारण आज भी हिंदी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखती है।
उनके काव्य संग्रहों में "रूप अरूप", "तीर तरंग", "मेघगीत" और कथाकाव्य "गाथा" शामिल हैं, जो उत्तर-छायावाद युग के गीतों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। संगीतिकाओं में "पशानी", "तमसा" और "इरावती" उनकी प्रयोगधर्मिता को दर्शाती हैं। कहानी संग्रहों में "एक किरण सौ झाइयाँ" उनकी लघु कथाओं का उत्कृष्ट उदाहरण है।
आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री के जीवन का सबसे प्रेरणादायक पहलू उनका स्वाभिमान और निर्भीकता थी। उन्हें दो बार, 1994 और 2010 में, भारत सरकार द्वारा 'पद्मश्री' सम्मान से सम्मानित करने की घोषणा की गई। दोनों ही बार उन्होंने यह राजकीय सम्मान स्वीकार करने से इनकार कर दिया। 2010 में सम्मान अस्वीकार करते हुए उन्होंने जो तर्क दिया, वह उनके महान व्यक्तित्व को दर्शाता है। उन्होंने विनम्रतापूर्वक कहा था कि "उनके शिष्य और युवा पीढ़ी उनसे ज़्यादा इस पुरस्कार के हक़दार हैं।" यह घटना बताती है कि आचार्य शास्त्री सम्मानों के पीछे भागने वाले साहित्यकार नहीं थे, बल्कि वे साहित्य को जीवन-संघर्ष और मानवीय मूल्यों की स्थापना का साधन मानते थे। उनके लिए, साहित्य का वास्तविक पुरस्कार पाठकों का प्रेम और अपने अनुभवों की सहज अभिव्यक्ति थी, न कि कोई शासकीय अलंकरण। एक अवसर पर उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि पद्मश्री उनके लिए 'झुनझुना' के समान है।शास्त्री जी ने भले ही पद्मश्री ठुकराया हो, लेकिन उनके विराट साहित्यिक योगदान को अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा गया। इनमें राजेंद्र शिखर पुरस्कार, भारत भारती पुरस्कार और शिव पूजन सहाय पुरस्कार शामिल हैं, जो साहित्य जगत में उनके उच्च स्थान को प्रमाणित करते हैं। मुजफ्फरपुर का 'निराला निकेतन' एक समय हिंदी जगत के लिए किसी 'साहित्य तीर्थ' से कम नहीं था। देश भर से साहित्यकार, कवि और कला प्रेमी आचार्य शास्त्री जी से मिलने और उनकी ऊर्जा से प्रेरणा लेने के लिए यहाँ आते थे। वे एक महान पशुपालक भी थे और उनके यहाँ कुत्ते, बिल्ली, गाय आदि हमेशा मौजूद रहते थे, जो जीवों के प्रति उनकी संवेदनशीलता को दर्शाता है। आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री का जीवन और साहित्य हमें यह सिखाता है कि महानता केवल कृतियों की संख्या या अर्जित सम्मानों से नहीं मापी जाती, बल्कि वह लेखक के चरित्र, स्वाभिमान और उसके द्वारा स्थापित उच्च मानवीय मूल्यों से परिलक्षित होती है। उनका साहित्य आज भी भारत की सनातन संस्कृति और मानवीय चेतना को पुनर्स्थापित करने का कार्य करता है। अपनी कविताओं, उपन्यासों और आलोचनाओं के माध्यम से वे युगों-युगों तक हिंदी साहित्य के पाठकों के हृदय में अमर रहेंगे। उनका संपूर्ण जीवन एक प्रेरणा है कि साहित्य केवल लेखन नहीं, बल्कि जीने की कला है।
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