दशम्यां विजयोत्सवः
श्री मार्कण्डेय शारदेयःआश्विन शुक्ल दशमी का विख्यात नाम विजया दशमी है।इसका धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व अत्यधिक है।यह अनेक सुखद संयोगों को अपने में समेटी हुई तिथि है। शारद नवरात्र का ही अंग बनकर हरसाल आती यह एक ओर दुर्गोत्सव को पूर्णता प्रदान करती तो दूसरी ओर हमें मानवीय मूल्यों के संरक्षण में सर्वत्र विजयी होने का सन्देश भी देती है।इस दिन खंजन (नीलकण्ठ) पक्षी का दर्शन शुभप्रद माना जाता है तो दूसरी ओर शमी, अश्मन्तक वृक्ष (कोविदार) एवं अपराजिता लता की पूजा भी पुण्यप्रद कही गई है।एक तरह से ये सभी कृत्य देवीपूजन के ही अभिवृद्धि-कारक तथा हमारे जीवन में सुख-समृद्धि घोलनेवाले हैं। हमारी दिव्य दर्शिनी संस्कृति ने सर्वत्र ईश्वरीय सत्ता का साक्षात्कार किया है, इसीलिए कहने को तो ये तिर्यक् योनियाँ हैं, पर इनमें समाहित जो दैवी शक्ति है, उसका मूल्य इस दिन अवश्य है।नहीं तो दिव्यद्रष्टा महर्षि इनके साथ आध्यात्मिकता क्यों जोड़ते? धार्मिक विधानों में इस दिन को क्यों रखते?
स्पष्ट है कि इन धार्मिक कृत्यों में आध्यात्मिक ऊँचाई है तो सामाजिक संस्कार एवं वैयक्तिक विस्तार भी है।जहाँ नीलकण्ठ शिवरूप है तो विजया एवं अपराजिता देवीरूप।अग्निगर्भा शमी एवं अग्नितत्त्व प्रधान महिष-मर्दिनी में भी साम्य होने से दोनों में ऐक्य का दर्शन ही है।इसीलिए तो इसे ईशानी एवं लक्ष्मी-जैसे नामों से मण्डित किया गया है।अपराजिता विष्णुकान्ता होकर वैष्णवी शक्ति दुर्गा का वानस्पतिक रूप में पूज्य हो जाती है।विजयार्थ शिवरूप शक्तिधर चाहिए ही, अपने भीतर अग्नि को पालनेवाले शमीवृक्ष-सा अग्नितत्त्व चाहिए ही और हममें अपराजेय शक्तियों की समग्रता चाहिए ही; सम्भवतः प्रतीक रूप में इस विजयदिवस को अपने में समेटने की ही हमारे पूर्वजों ने प्रेरणा दी है।
सावन-भादो की बरसात से आना-जाना दूभर रहा।लोग अपने गाँव-घर तक सिमटे-सिकुड़े रहे। इसीलिए चौमासे में नया कार्य वर्जित रहा।शरद ऋतु का आगमन हुआ।जलाशयों का जल स्थिर एवं स्वच्छ हुआ।रास्ते भी सूख चले तो अब अपने गाँव की सीमा पार करने में दिक्कत नहीं रही।इसलिए भी विजयप्रद इसी दिन को सीमोल्लंघन के लिए शुभ माना गया।राजा लोग इस दिन शक्तिरूपा देवी का शस्त्र-अस्त्रों पर आवाहन-पूजन किया करते थे।चूँकि बरसात के कारण चढ़ाई-भिड़ाई सम्भव नहीं रहती, अतः इस सुदिन से विजयार्थ प्रस्थान शुरू हो जाया करता था।इसीलिए कहा गया है-
‘आश्विनस्य सिते पक्षे दशम्यां विजयोत्सवः।
कर्तव्यो वैष्णवैः सार्द्धं सर्वत्र विजयार्थिना’।।
अर्थात्, आश्विन शुक्ल दशमी को सर्वत्र विजयी होने के लिए वैष्णवी भावना से विजयोत्सव मनाना चाहिए।
इस दिन बाण भरे तरकस, तलवार एवं धनुष धारण किए राक्षसों का संहर्ता श्रीराम को रथारूढ़ कर शमीवृक्ष के पास राजोपचार से पूजा का विशेष महत्त्व है।इस दिन रघुनन्दन की प्रीति की प्राप्ति के लिए कुछ लोग गीत-वाद्य के साथ वानर, लंगूर तथा भालू का वेश धारण कर कौशलेन्द्र की रथयात्रा निकालते हैं और रामराज्य, रामराज्य की घोषणा करते हैं।
इस तिथि का ज्यौतिष महत्त्व भी कम नहीं।कम रहता तो इसे विजया क्यों कहा ही क्यों जाता! हर महीने दो बार आनेवाली दशमी क्यों नहीं यह उपाधि धारण कर पाई? श्रवण नक्षत्र के योग से इसकी शक्ति इतनी बढ़ जाती है कि यह स्वयं सिद्ध मुहूर्त बनकर बरसात से रुके पड़े हमारे समस्त सत्कर्मों को फलीभूत करने के लिए समुपस्थित होती है।हाँ, अपराह्न काल में आनेवाले ‘विजय’ नामक मुहूर्त का योग और श्रेयस्कर माना गया है।चौमासे का यह एकमात्र ऐसा दिन है, जो अपनी परधि में ग्रह, नक्षत्र व पंचांगगत समस्त विषमताओं के ऊपर सेतु रूप में पार करनेवाला माना गया है।तभी तो साढ़े तीन शुभ मुहूर्तों में इसे स्थान देते हुए कहा गया है-
‘प्रतिपद्-वत्सरादिः या तृतीयाक्षय-संज्ञिका।
दशमी विजयाख्या च मुहूर्ताः त्रय ईरिताः।।
प्रतिपत्कार्तिके शुक्ला स मुहूर्तोsर्धसंज्ञकः।
स्वयंसिद्धा इमे ज्ञेयाः सर्वकार्य-प्रसाधकाः।।
अर्थात्, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, वैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय तृतीया), विजया दशमी एवं कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा (बलिप्रतिपदा) का आधा भाग, ये स्वयंसिद्ध हैं।यानी, इन दिनों पंचांग-शुद्धि देखने की जरूरत नहीं, कोई शुभ कर्म किया जा सकता है।
इस दिन भूमिपूजन, गृहप्रवेश, व्यापार का आरम्भ, पदभार-ग्रहण, विजययात्रा, अथवा अन्य शुभ कर्मों का सम्पादन किया जा सकता है।
विजया दशमी को शास्त्रकारों ने जो विधान निर्देश किए हैं, वे लाभप्रद ही हैं।संक्षेप में शमीवृक्ष के समीप जाकर ‘ऊँ शमीवासिन्यै ईशान्यै नमः’ इस नाममन्त्र से उसकी देवीरूप में ससंकल्प पूजा करनी चाहिए तथा प्रार्थना करनी चाहिए-
‘अमंगलानां शमनीं शमनीं दुष्कृतस्य च।
दुःस्वप्न-नाशिनीं धन्यां प्रपद्येsहं शमीं शुभाम्’।।
इसके बाद जल, रोली-चन्दन, अक्षत आदि से युक्त वहाँ की गीली मिट्टी उठाकर घर लानी चाहिए।उसे पवित्र स्थान में रखना चाहिए।
इसी तरह अपराजिता लता के नीचे अष्टदल कमल बनाकर बीच में एवं अगल-बगल अक्षतपुंज रखकर ‘ऊँ अपराजितायै नमः’ इस नाममन्त्र से बीचवाले अक्षतपुंज पर, ‘ऊँ क्रियाशक्त्यै जयायै नमः’ इससे दक्षिण भागवाले अक्षतपुंज पर तथा ‘ऊँ उमायै विजयायै नमः’ इन नाम मन्त्र से वाम भाग में पूजन करना चाहिए।फिर थोड़ा अक्षत, हल्दीचूर्ण, दूब और पीली सरसों से एक छोटी पोटली बनाकर धागे में बाँधकर उसे अपराजिता देवी के पास रखकर रोली, अक्षत, पुष्प चढ़ाएँ। इसके बाद प्रार्थना करें-
‘सदापराजिते यस्मात् त्वं लतासूत्तमा स्मृता।
सर्वकामार्थ-सिद्ध्यर्थं तस्मात् त्वां धारयाम्यहम्’।।
-इस मन्त्र से अभिमन्त्रित कर पुरुष दाईं तथा स्त्रियाँ बाईं भुजा में धारण करें।
संक्षिप्त पूजाविधियों में पंचोपचार मुख्य है।इसमें रोली-अक्षत, पुष्प-पत्र, धूप, दीप एवं नैवेद्य (प्रसाद) का प्रयोग होता है।अतः विस्तार से न कर सकें तो इतना अवश्य करें।
कहीं-कहीं इस दिन रावणवध का भी आयोजन होता है।इसका उद्देश्य यह है कि स्वयं में श्रीराम के आचरणों को उतारें तथा अपनी दसो इन्द्रियों पर विजय पाकर जितेन्द्रिय बनने का प्रयास करें।
(लेखक की कृति ‘तत्त्वचिन्तन’ से)
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