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“हमारे पर्व शुभ हैं, ‘हैप्पी’ नहीं – भारतीय त्यौहारों की आत्मा को समझें”

“हमारे पर्व शुभ हैं, ‘हैप्पी’ नहीं – भारतीय त्यौहारों की आत्मा को समझें”

✍️ डॉ. राकेश दत्त मिश्र

भारतीय संस्कृति के त्यौहार केवल आनंद और उत्सव का अवसर नहीं होते, बल्कि वे जीवन के गहन आध्यात्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संदेशों के वाहक होते हैं। हमारे पर्व “मनोरंजन” से अधिक “मनोनयन” के होते हैं — अर्थात् आत्मा को ऊँचा उठाने, जीवन में प्रकाश लाने और समाज को एक सूत्र में बाँधने का संदेश देने वाले। परन्तु आज के युग में एक अजीब प्रवृत्ति विकसित हो गई है — हर त्यौहार पर लोग कहते हैं, “हैप्पी होली”, “हैप्पी दीपावली”, “हैप्पी दुर्गा पूजा”।
प्रश्न यह उठता है कि — क्या हमारे पावन और शुभ त्यौहार केवल “हैप्पीनेस” तक सीमित हैं? क्या हमारी अपनी भाषा, अपनी परंपरा, अपने संस्कार इतने निर्धन हो गए कि हम “शुभ” को भूलकर “हैप्पी” कहने लगे?

“हैप्पी” शब्द अंग्रेजी का है, जो केवल भावनात्मक प्रसन्नता या सुख की क्षणिक अनुभूति को दर्शाता है।
वहीं “शुभ” शब्द संस्कृत मूल का है, जिसका अर्थ है — कल्याणकारी, मंगलमय, पवित्र, आलोकमय।
“शुभ” का आशय केवल बाहरी मुस्कान नहीं, बल्कि अंतरमन की शांति और समाज के लिए मंगल भावना से है।

जब हम कहते हैं “शुभ दीपावली”, तो इसका तात्पर्य होता है —

“आपके जीवन में ज्ञान का प्रकाश फैले, अंधकार मिटे, और समाज में सत्य और सद्भाव की स्थापना हो।”

परंतु जब कोई कहता है “हैप्पी दिवाली”, तो यह केवल व्यक्तिगत प्रसन्नता की अभिव्यक्ति रह जाती है, उसमें वह आत्मिक गहराई और सांस्कृतिक ऊष्मा नहीं रह जाती जो “शुभ दीपावली” में निहित है।


भारत का प्रत्येक पर्व “शुभ” की अवधारणा पर आधारित है।


होली — केवल रंगों का त्योहार नहीं, बल्कि बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है। यह “शुभता” के रंगों से जीवन को रंगने का संदेश देता है।

दुर्गा पूजा — केवल उत्सव नहीं, बल्कि अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक है। माँ दुर्गा के माध्यम से हम “शक्ति” के साथ “शुभ” की साधना करते हैं।

दीपावली — केवल पटाखों या रोशनी का पर्व नहीं, यह अंधकार से प्रकाश की, अज्ञान से ज्ञान की यात्रा है।

इन पर्वों में “शुभ” शब्द हमारी भावना का केंद्र है। यह केवल अभिवादन नहीं, बल्कि एक संस्कार है — जो हमारे मन, वचन और कर्म को पवित्र करने का आह्वान करता है।

भाषा केवल बोलचाल का माध्यम नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति की आत्मा है।
जब हम “हैप्पी” कहते हैं, तो हम अनजाने में अपनी जड़ों से दूरी बना रहे होते हैं।
“हैप्पी” में अंग्रेजियत की झलक है, पर “शुभ” में भारतीयता की आभा है।
यदि हम अपनी भाषा के शब्दों को तिलांजलि देंगे, तो धीरे-धीरे हमारी संस्कृति भी केवल एक औपचारिकता बन जाएगी।

“किसी राष्ट्र की आत्मा उसकी भाषा में बसती है।”

तो फिर हम क्यों अपनी आत्मा को अंग्रेजी शब्दों के बोझ तले दबा रहे हैं?

हमारे सभी त्योहारों की शुभकामनाएँ “मंगल”, “शांति”, “सद्भाव” और “आशीर्वाद” से भरी होती हैं।


“शुभ दीपावली” कहने से हम केवल आनंद नहीं बाँटते, बल्कि प्रकाश और सत्य का संकल्प बाँटते हैं।


“शुभ होली” कहने से हम केवल रंग नहीं लगाते, बल्कि मन के द्वेष और राग-द्वेष को धोने की भावना रखते हैं।


“शुभ नवरात्रि” कहने से हम केवल पूजा नहीं करते, बल्कि शक्ति और साधना के मार्ग पर चलने का संकल्प लेते हैं।

इसलिए, “शुभ” केवल एक शब्द नहीं — यह हमारी संस्कृति की प्राणवायु है।



यह सही है कि दुनिया अब एक वैश्विक परिवार बन रही है, और भाषाओं का आदान-प्रदान स्वाभाविक है।
हम अंग्रेजी सीखें, बोलें, उसमें कोई आपत्ति नहीं; परंतु अपने संस्कारिक शब्दों को छोड़ना अपने अस्तित्व से विमुख होना है।
“हैप्पी” शब्द आधुनिकता का प्रतीक हो सकता है, पर “शुभ” शब्द आध्यात्मिकता का प्रतीक है।
हमें यह संतुलन समझना होगा कि आधुनिक बनते हुए भी हमें अपनी भारतीय जड़ों से जुड़ा रहना है।



हमारे त्यौहार “हैप्पीनेस” से नहीं, “शुभता” से शुरू होते हैं।
त्योहारों का उद्देश्य केवल उल्लास नहीं, बल्कि उत्कर्ष है।
जब हम कहते हैं “शुभ दीपावली”, “शुभ होली”, “शुभ नवरात्रि” — तब हम केवल बधाई नहीं देते, बल्कि एक दूसरे के जीवन में मंगल और प्रकाश का आशीर्वाद देते हैं।

इसलिए, अगली बार जब कोई त्यौहार आए —
“हैप्पी” नहीं, “शुभ” कहिए।
क्योंकि “हैप्पी” मुस्कान देता है, पर “शुभ” जीवन का मार्ग दिखाता है।
“हैप्पी” क्षणिक सुख है, पर “शुभ” सनातन मंगल है।

🪔 “शुभ दीपावली” कहिए, क्योंकि भारत की आत्मा ‘शुभ’ में बसती है, ‘हैप्पी’ में नहीं।”
— डॉ. राकेश दत्त मिश्र

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