बिहार विधानसभा चुनाव 2025: जाति का सर्कस और मूक मतदाता
सत्येन्द्र कुमार पाठक
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 का बिगुल बज चुका है, लेकिन रणभूमि में राष्ट्रीय चेतना, विकास, भ्रष्टाचार, मंहगाई या बेरोजगारी जैसे ज्वलंत मुद्दे कहीं सुनाई नहीं दे रहे। चुनावी जंग का मैदान 243 विधानसभा क्षेत्रों में सिमट कर केवल 'जातीय समीकरण' की बिसात बन गया है। यह एक दुखद विरोधाभास है कि जिस लोकतंत्र में जनता की आवाज़ सर्वोपरि होनी चाहिए, वहाँ सबसे शक्तिशाली आवाज़ केवल जातीय गोलबंदी की बनकर रह गई है। इस सर्कस के केंद्र में मतदाता खड़ा है—मूक, शालीन, सब सुनता हुआ, पर अपने विवेक को दबाए। यह आलेख इस परिदृश्य की समालोचना करता है, जिसमें जाति केवल एक सामाजिक पहचान नहीं, बल्कि सत्ता की सबसे बड़ी कुंजी बन गई है।
केंद्रीय विचार भारतीय, विशेष रूप से बिहारी, समाज में जाति की जड़ें कितनी गहरी हैं, इस पर केंद्रित है। सदियों से चला आ रहा यह जातीय भेदभाव न केवल सामाजिक संरचना को भंग करता है, बल्कि इंसान के विवेक और संवेदना को भी कुंद कर चुका है। आज हर निर्णय, हर दृष्टिकोण, और यहाँ तक कि न्याय भी, जाति के तराजू पर तोला जाता है। जाति का मूल विचार, जो शायद कभी सामाजिक संगठन का ढाँचा रहा होगा, समय के साथ अन्याय, भेदभाव और शोषण का औजार बन गया। उच्च-नीच की मानसिकता ने इंसान की पहचान उसके कर्म से हटाकर उसकी जाति से जोड़ दी। सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि यह विभाजन अब इतना सामान्य हो गया है कि लोग अन्याय को भी 'अपनों के पक्ष में' देखकर सही ठहराने लगे हैं। जब किसी अपराधी की जाति अपनी हो तो उसे निर्दोष मान लिया जाता है, और जब पीड़ित किसी अन्य जाति का हो तो उसके दर्द के प्रति संवेदना मर जाती है। यह वह भयावह बिंदु है जहाँ इंसानियत दम तोड़ देती है और जातिवाद जीत जाता है। चुनावी उम्मीदवार बड़ी बेशर्मी से राष्ट्रवाद, विकास या कृषक समस्याओं को छोड़कर अल्पसंख्यक तुष्टीकरण, जातिवाद और परिवारवाद का नारा देते नजर आते हैं। नेता जानते हैं कि जातीय गोलबंदी उनकी सत्ता की नींव है। उनकी रणनीति समाज को एकजुट करने की नहीं, बल्कि बांटे रखने की है। हर चुनाव में उम्मीदवारों की योग्यता, शिक्षा या विजन का आकलन नहीं होता, बल्कि उनकी जातीय पहचान का हिसाब लगाया जाता है। राजनीति ने जातिवाद और परिवारवाद को केवल जीवित ही नहीं रखा है, बल्कि उसे हवा दी है। वोट के लिए जाति को हथियार बनाना लोकतंत्र की भावना को कमजोर करने वाला सबसे खतरनाक कदम है। नेता समाज की इस कमजोरी को अपनी शक्ति में बदलते हैं—वे खेल दिखाते हैं और जनता दर्शक बनकर ताली बजाती है। यह सर्कस वर्षों से चल रहा है, और हम अनजाने में उसके मोहरे बने हुए हैं।
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के चुनावी विमर्श में जातीय गोलबंदी और राजनीतिक तुष्टिकरण का बोलबाला है, जिसने दुर्भाग्यवश जनता के वास्तविक सरोकारों को हाशिए पर धकेल दिया है। मंहगाई से लेकर शिक्षा और राष्ट्रवाद से लेकर कृषि तक—ये वे मूलभूत मुद्दे हैं, जिन पर चुनाव लड़ा जाना चाहिए, लेकिन जिन्हें केवल 'चुनावी जुमले' तक सीमित कर दिया गया है:
ये दोनों मुद्दे जनता को सीधे आर्थिक रूप से प्रभावित करते हैं और बिहार जैसे निम्न-आय वाले राज्य में इनका प्रभाव और भी गहरा होता है। मंहगाई: दैनिक उपयोग की वस्तुओं और ईंधन की लगातार बढ़ती कीमतें आम मतदाता की जेब पर सीधा वार करती हैं। नेता अक्सर इसे राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बताकर स्थानीय चुनाव से इसका ध्यान हटा देते हैं। भ्रष्टाचारवाद: निचले स्तर पर सरकारी योजनाओं के लाभ से लेकर प्रशासनिक कार्यों तक में रिश्वतखोरी (पेटी करप्शन) एक आम समस्या बनी हुई है। दल एक-दूसरे पर आरोप तो लगाते हैं, लेकिन प्रशासनिक सुधार, पारदर्शिता (Transparency) या जवाबदेही (Accountability) के लिए ठोस एजेंडा है। बिहार के संदर्भ में बेरोजगारी एक सामाजिक-आर्थिक संकट है। युवाओं की एक बड़ी आबादी रोज़गार के अवसरों की कमी के कारण कुंठित है। सरकारी नौकरियों में विलंब और निजी क्षेत्र में निवेश का अभाव उन्हें पलायन करने पर मजबूर करता है।
चुनावी वादे में कुछ दल 'लाखों नौकरी' के वादे तो करते हैं, लेकिन स्थायी औद्योगिक विकास या निवेश को आकर्षित करने की दीर्घकालिक रणनीति का अभाव दिखता है। यह मुद्दा चुनावी भाषणों में तो गूँजता है, पर जातीय गणित के आगे इसकी धार कमजोर हो जाती है।
ये वे मूलभूत सरोकार हैं जो विकास और पहचान के लिए महत्वपूर्ण हैं, पर जिनकी उपेक्षा होती है।
शिक्षा और स्वास्थ्य: प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक, शिक्षकों की कमी, जर्जर बुनियादी ढाँचा, और ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों की बदहाली युवाओं की रोज़गार क्षमता और सामान्य जीवन की गुणवत्ता को सीधे प्रभावित करती है।
कृषि: बिहार की अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर है, फिर भी किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की गारंटी नहीं मिलती, सिंचाई की अपर्याप्त व्यवस्था है, और प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए प्रभावी तंत्र का अभाव है। किसान अपनी जाति के नेता को वोट देने के लिए मजबूर हो जाते हैं, भले ही वह नेता किसानों के मुद्दों को न उठाता हो। राष्ट्रवाद/भारतीय संस्कृति: राष्ट्रीय दल इन वैचारिक मुद्दों को ध्रुवीकरण कारक (Polarizing Factor) के रूप में ज़ोर-शोर से उठाते हैं ताकि क्षेत्रीय अस्मिता और जातीय पहचान से ध्यान हटाया जा सके। यह वैचारिक युद्ध अक्सर स्थानीय समस्याओं को कम महत्वपूर्ण बना देता है। बिहार: जातीय राजनीति का महासमर और चुनावी गणित 📊
बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण (Caste Equation) केवल एक कारक नहीं, बल्कि आधारशिला है। हाल ही में हुए जातीय सर्वेक्षण (जातीय गणना) ने राजनीतिक दलों को अपने समीकरणों को साधने के लिए नए सिरे से मजबूर किया है:
अनुमानित आबादी (जातीय गणना) राजनीतिक महत्व और आधार
अति पिछड़ा वर्ग (EBC) लगभग 36% सबसे अधिक विभाजित और निर्णायक। लंबे समय तक गैर-यादव ओबीसी के रूप में संगठित।पिछड़ा वर्ग (OBC) लगभग 27% इसमें यादव (14.3%) (RJD का आधार), कुर्मी और कुशवाहा महत्वपूर्ण हैं।दलित/अनुसूचित जाति (SC) लगभग 20% 'किंगमेकर' वर्ग। विभिन्न उप-जातियों में बंटा हुआ।
मुस्लिम लगभग 17.7% 'MY' (मुस्लिम-यादव) समीकरण के तहत महागठबंधन का मजबूत स्तंभ।
सवर्ण/उच्च जातियाँ लगभग 15% पारंपरिक रूप से भाजपा (BJP) के मुख्य समर्थक।
उम्मीदवार चयन में हावी समीकरण: चुनावी रणनीतिकारों के लिए, उम्मीदवार की योग्यता या विजन से अधिक उसकी जातीय पहचान का महत्व होता है, ताकि अपने समुदाय के वोटों का ध्रुवीकरण सुनिश्चित किया जा सके।
सकारात्मक प्रभाव (समावेशी राजनीति): मंडल आयोग के बाद पिछड़े वर्गों और दलितों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व अभूतपूर्व रूप से बढ़ा है, जिससे लोकतंत्र अधिक समावेशी हुआ है।नकारात्मक प्रभाव (विकास में बाधा): जब चुनाव केवल जातीय गोलबंदी पर केंद्रित होते हैं, तो रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे वास्तविक विकास के मुद्दे पीछे छूट जाते हैं। बदलते समीकरण: में विकास का बढ़ता महत्व: 2010 और 2020 के चुनावों में यह देखा गया है कि विकास और रोजगार जैसे मुद्दे बड़े जातीय गोलबंदी को बेअसर करने की क्षमता रखते हैं। प्रशांत किशोर जान सुराज की चुनौती: ये पारंपरिक जाति-केंद्रित राजनीति से हटकर रोजगार, शिक्षा और पलायन जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करके एक विकल्प प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहे हैं।जातिवाद केवल एक सामाजिक समस्या नहीं, बल्कि एक मानसिक गुलामी है। लेखक का आह्वान स्पष्ट है: समय आ गया है कि हम अपने भीतर झाँकें और समझें कि हमारी असली पहचान हमारा कर्म और हमारा चरित्र है, न कि हमारी जाति।बिहार का मतदाता आज मूक है, नेताओं के भाषण और जातीय नारों को सुन रहा है, लेकिन गुपचुप तरीके से अपना फैसला कर रहा है। मतदाताओं को अपनी शालीनता छोड़कर अपने मत की शक्तिन को जाति के संकीर्ण दायरे से निकालकर, राष्ट्र और विकास के व्यापक हित में प्रयोग करना होगा। यह चुनाव केवल सत्ता का खेल नहीं, बल्कि बिहारी समाज के नैतिक विवेक की अंतिम परीक्षा है। यदि यह जातीय सर्कस यूँ ही चलता रहा, तो हम अनजाने में अपने ही भविष्य का मज़ाक देखते रहेंगे।
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