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“रागिनी की संध्या”

“रागिनी की संध्या”

पंकज शर्मा
संध्या के कोमल नयन झुके हैं,
आकाश का मन जैसे सोच में हो।
किसी अगोचर प्यास की लहर
मन के अरण्य में हल्की-सी हिली है,
जहाँ मौन, दीपक-सा,
अपना प्रकाश स्वयं पी रहा है।


नीलिमा की गोद में झरती हैं
तारकाओं की नन्ही श्वेत कलियाँ।
उनमें छिपी है किसी मुस्कान की गूँज —
भामिनी, तुम्हारी ही छाया
पवन के नर्म परों पर थिरकती है।


हवा जब पत्तों को छूती है,
वह तुम्हारा ही नाम जपती है।
स्वर्ग के किसी द्वार से उतरकर
तुमने पृथ्वी को छुआ है —
और मिट्टी सुवास बन गई है।


दामिनी की आँखों में चमकते हैं
बादलों के रत्न —
गर्जन तुम्हारे राग का आलाप है।
वर्षा की बूँदें गिरती नहीं —
वे आकाश की अश्रुधारा बनकर
धरती से आलिंगन करती हैं।


रूप की गहराई में उतरते हुए
मैं अपनी आत्मा को पाता हूँ।
यह रति नहीं, ध्यान है —
जहाँ स्पर्श लय हो जाता है
और लय, प्रार्थना।


श्याम केशों में रात्रि का मधुर रहस्य है,
अधर की आभा में भोर का संकेत।
ग्रीवा पर झुका हुआ अंधकार
स्वयं ज्योति में विलीन हो जाता है —
तुम उस प्रकाश की छाया हो,
जो अंधकार को भी अर्थ देती है।


मंद मुस्कान में छिपा है गर्व नहीं —
एक निर्मल समर्पण का क्षण।
गजगामिनी, तुम्हारे पद-चिह्नों से
धरती फिर से सजीव हो उठती है,
जैसे सौंदर्य स्वयं जीवन का संस्कार हो।


अब रात्रि का अंतिम तार टूटा है,
किन्तु संगीत शेष है।
सृष्टि का मौन एक राग बन गया —
जहाँ प्यास और तृप्ति,
दोनों एक ही दीप की लौ में विलीन हैं।
तुम वही रागिनी हो —
जो संध्या के नयनों में अब भी थरथरा रही है।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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