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देवदीवाली: काशी के घाटों पर देवताओं का उत्सव

देवदीवाली: काशी के घाटों पर देवताओं का उत्सव 


सत्येन्द्र कुमार पाठक
देवदीवाली – जिसे 'देवताओं की दिवाली' कहा जाता है, वह कार्तिक मास की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला एक दिव्य और विश्व-विख्यात पर्व है। यह उत्सव दीपावली के ठीक पंद्रह दिन बाद, विश्व के सबसे प्राचीन शहर काशी (वाराणसी) की गौरवशाली संस्कृति और परम्परा को जीवंत करता है। इस दिन काशी के अर्धचंद्राकार गंगा घाट, लाखों दीपों की रोशनी से जगमगा उठते हैं, मानों पूरी आकाशगंगा ही धरती पर उतर आई हो। देवदीवाली के दिन, रविदास घाट से लेकर राजघाट (या आदिकेशव घाट) तक, गंगा नदी के किनारे बने सभी रास्ते और सीढ़ियाँ (घाट) मिट्टी के करोड़ों दीयों से रोशन हो जाती हैं। यह दृश्य इतना अद्भुत और अलौकिक होता है कि यह हर किसी को सम्मोहित कर लेता है। लाखों प्रबुद्ध मिट्टी के दीपक पवित्र गंगा नदी के जल पर तैरते हैं, और घाटों के आस-पास की राजसी इमारतें, मठ-आश्रम, और देवालय भी असंख्य दीपकों और झालरों की रोशनी से जगमगा उठते हैं। यह केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि गंगा नदी के प्रति काशीवासियों के अगाध सम्मान और प्रेम का प्रदर्शन है। इस दिन गंगा नदी की पूजा की जाती है और उन्हें माँ का सर्वोच्च सम्मान दिया जाता है। इस अवसर पर, विभिन्न घाटों पर धूप और मंत्रों के पवित्र जप की एक मजबूत सुगंध हवा में भर जाती है, जिससे एक गहरा धार्मिक उत्साह उत्पन्न होता है।
त्रिपुरासुर पर भगवान शिव की विजय: सबसे प्रचलित मान्यता के अनुसार, कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान शिव ने त्रिपुरासुर नामक शक्तिशाली राक्षस का वध कर तीनों लोकों को उसके अत्याचारों से मुक्त कराया था। इस विजय से प्रसन्न होकर देवताओं ने स्वर्गलोक में दीप जलाकर दीपोत्सव मनाया था, और भगवान शिव त्रिपुरारि कहलाए। तभी से कार्तिक पूर्णिमा को देवदीवाली मनाई जाने लगी। राजा दिवोदास ने अपने राज्य काशी में देवताओं के प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान शिव रूप बदलकर काशी के पंचगंगा घाट पर आकर गंगा स्नान और ध्यान किया। जब राजा दिवोदास को यह पता चला, तो उन्होंने देवताओं के प्रवेश पर लगे प्रतिबन्ध को समाप्त कर दिया। इसके बाद, सभी देवताओं ने काशी में प्रवेश किया और दीप जलाकर दीपावली मनाई, जिसे देवदीवाली के रूप में मनाया जाने लगा।: देवदीवाली की आधुनिक परम्परा सबसे पहले वर्ष 1985 में पंचगंगा घाट पर हजारों दीये जलाकर शुरू की गई थी, जिसके बाद यह आयोजन विश्व स्तर पर विख्यात हो गया। पहले लोग घरों से दीपक लाकर गंगा तट पर रखते थे या धारा में प्रवाहित करते थे और ऊँचे बाँस-बल्लियों में आकाशदीप जलाते थे, जो धरती पर देवताओं के आगमन का स्वागत और पूर्वजों को श्रद्धांजलि का प्रतीक था।देवदीवाली का उत्सव अब एक भव्य महोत्सव में परिवर्तित हो चुका है, जिसने प्राचीन परम्परा और संस्कृति में आधुनिकता का समावेश कर इसे विश्वविख्यात बनाया है।भव्य गंगा आरती और दीप-दान: दशाश्वमेध घाट पर आयोजित होने वाली महा आरती इस दिन का मुख्य आकर्षण होती है। 21 ब्राह्मणों और वैदिक मंत्रों के बीच, 41 लड़कियों द्वारा दीये जलाकर दीप-दान किया जाता है।
देव दिवाली के अवसर पर वाराणसी के महान हस्तियों द्वारा नृत्य प्रदर्शन सहित विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम और गंगा आरती का आयोजन होता है। अब इसमें 3D प्रोजेक्शन मैपिंग, लेजर शो, और कोरियोग्राफ्ड ग्रीन आतिशबाजी भी शामिल की जाती है, जो तकनीक और श्रद्धा का अद्भुत संगम है। भक्त और तीर्थयात्री सुबह गंगा के पवित्र जल में कार्तिक स्नान करते हैं, जिसे आत्मशुद्धि और पुण्य अर्जित करने का माध्यम माना जाता है। घरों में भोग के आवंटन के साथ अखण्ड रामायण का आयोजन भी होता है।देवदीवाली केवल रोशनी का पर्व नहीं, बल्कि काशी, काशी के घाट और काशी के लोगों के परस्पर सहयोग से देवताओं के उत्सव को महोत्सव में बदलने का एक अद्भुत उदाहरण है। यह लाखों दीयों की रोशनी में गंगा माँ की पूजा, और अपनी प्राचीन परम्पराओं को विश्व पटल पर स्थापित करने का एक दिव्य त्योहार है ।
राक्षस संस्कृति का राजा त्रिपुरासुर नामक एक शक्तिशाली राक्षस ने ब्रह्मा जी से वरदान पाकर तीनों लोकों (पृथ्वी, स्वर्ग और पाताल) पर भयानक अत्याचार और आतंक फैला दिया था। उसने एक साथ तीन नगर (त्रिपुर) की रचना की और देवताओं को स्वर्ग से निष्कासित कर दिया। सभी देवता त्रिपुरासुर के आतंक से त्रस्त होकर सहायता के लिए भगवान शिव के पास पहुँचे और उद्धार की विनती की।महादेव की विजय कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन, भगवान शिव ने एक विशेष बाण से त्रिपुरासुर का वध कर दिया और तीनों लोकों को उसके अत्याचारों से मुक्त कराया। इस विजय के कारण ही भगवान शिव को त्रिपुरारि (त्रिपुर के शत्रु) कहा जाने लगा। इस महान विजय से प्रसन्न होकर, सभी देवताओं ने स्वर्गलोक में और भगवान शिव की प्रिय नगरी काशी (वाराणसी) में आकर गंगा किनारे दीप जलाए और खुशियाँ मनाई। माना जाता है कि तभी से कार्तिक पूर्णिमा को देवताओं की दिवाली यानी देवदीवाली के रूप में मनाया जाने लगा। राजा दिवोदास का प्रतिबन्ध: प्राचीन काल में, काशी के राजा दिवोदास ने अपने राज्य में देवताओं के प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। भगवान शिव का वेश परिवर्तन: कार्तिक पूर्णिमा के दिन, भगवान शिव ने रूप बदलकर पंचगंगा घाट पर आकर गंगा स्नान किया और ध्यान में लीन हो गए। जब राजा दिवोदास को इस बात का ज्ञान हुआ, तो उन्होंने देवताओं के प्रवेश पर लगा प्रतिबन्ध समाप्त कर दिया। सभी देवतागण एक साथ काशी में प्रवेश किए और अपने प्रिय शिवधाम में वापसी की खुशी में दीये जलाकर दीपावली मनाई। काशीवासी मानते हैं कि इस दिन स्वर्ग के देवता अपने भक्तों के सभी कष्टों को दूर करने के लिए पृथ्वी पर, विशेषकर गंगा घाटों पर, आते हैं।
मूल परम्परा (17वीं शताब्दी): यह माना जाता है कि काशी में दीपदान की यह परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने 17वीं शताब्दी में पंचगंगा घाट पर पत्थरों का एक विशाल हजारा दीपस्तंभ (हजारों दीपों का स्तम्भ) बनवाया था, जो इस परम्परा का ऐतिहासिक साक्षी है। आधुनिक पुनरुद्धार (1985): हालाँकि पुराने समय में लोग घरों से दीपक लाकर गंगा में प्रवाहित करते थे, लेकिन घाटों को सामूहिक रूप से लाखों दीपों से सजाने की वर्तमान भव्य परम्परा की शुरुआत वर्ष 1985 में हुई।इसकी शुरुआत पंचगंगा घाट पर कुछ स्थानीय युवकों द्वारा की गई थी, जिन्होंने श्रद्धालुओं से पैसे एकत्र करके हजारों दीये जलाए।राष्ट्रीय सम्मान: 1999 के कारगिल युद्ध के बाद, इस आयोजन को 'गंगा सेवा निधि' जैसी संस्थाओं ने 'शहीद स्मृति दिवस' से भी जोड़ा। अब दशाश्वमेध घाट पर इंडिया गेट की अनुकृति बनाई जाती है जहाँ शहीदों को सलामी दी जाती है, जिससे यह पर्व राष्ट्रवाद और आध्यात्मिकता का संगम बन गया है।देवदीवाली एक धार्मिक अनुष्ठान के रूप में शुरू हुई, जो भगवान शिव की विजय और देवताओं के काशी आगमन की याद दिलाता है, और समय के साथ यह काशी की कला, संस्कृति और सामूहिक प्रयास का एक विश्वव्यापी म और भगवान शिव
पौराणिक कथाओं के अनुसार, देवदीवाली का विचार और उत्सव स्वयं देवताओं ने भगवान शिव की विजय के उपलक्ष्य में प्रारंभ किया था।देवतागण ने भगवान शिव के त्रिपुरसुर पर विजय की खुशी में दीप जलाकर खुशियाँ मनाईं और काशी में दीपोत्सव किया। कार्तिक पूर्णिमा (जिस दिन भगवान शिव ने राक्षस त्रिपुरासुर का वध किया)।महारानी अहिल्याबाई होल्कर उन्होंने 17वीं शताब्दी में काशी में दीपदान की परम्परा को पुनर्जीवित करते हुए पंचगंगा घाट पर 'हजारा दीपस्तंभ' (हजारों दीपों का स्तम्भ) बनवाया। 17वीं शताब्दी (आधुनिक काल से पहले)।
पौराणिक रूप से, देवदीवाली के 'संस्थापक' स्वयं भगवान शिव (त्रिपुरासुर का वध करने वाले) और देवतागण हैं, जिन्होंने काशी में दीपोत्सव किया ।वाराणसी में जो लाखों दीपों से जगमगाता भव्य महोत्सव हम देखते हैं, उसकी औपचारिक शुरुआत हाल के दशकों में हुई है। इसे शुरू करने का श्रेय दो प्रमुख व्यक्तियों/समितियों को जाता है, जिन्होंने अलग-अलग घाटों पर इस परंपरा को बड़े पैमाने पर शुरू किया: पंडित नारायण गुरु (मंगलागौरी मंदिर के महंत) और स्थानीय युवक उन्होंने श्रद्धालुओं से धन एकत्र कर सबसे पहले दीपों की एक बड़ी श्रंखला जलाई, जिससे इस आधुनिक महोत्सव की नींव पड़ी। 1985 में पंचगंगा घाट पर। पंचगंगा घाट को आधुनिक देवदीवाली का 'जनक' घाट भी कहा जाता है।पंडित किशोरी रमन दुबे ('बाबू महाराज') उन्होंने अपने संगठन 'गंगोत्री सेवा समिति' के माध्यम से देवदीवाली पर घाटों को सजाने और भव्य गंगा आरती आयोजित करने की परंपरा को बड़े पैमाने पर शुरू किया। 1991 में दशाश्वमेध घाट पर होता है। देवदीवाली को वर्तमान विश्व प्रसिद्ध, लाखों दीयों से जगमगाते महोत्सव के रूप में पुनर्जीवित करने और प्रारंभ करने का श्रेय मुख्य रूप से पंडित नारायण गुरु (पंचगंगा घाट पर) और पंडित किशोरी रमन दुबे (दशाश्वमेध घाट पर) को जाता है, जिन्होंने इसे एक सामूहिक सामाजिक-सांस्कृतिक आयोजन किया जाता है।
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