बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के वादे - कितना संभव है?
दिव्य रश्मि के उपसम्पादक जितेन्द्र कुमार सिन्हा की कलम से |बिहार में 2025 का विधानसभा चुनाव राजनीतिक सरगर्मी का नया अध्याय लेकर आया है। सत्ताधारी और विपक्षी सभी दल जनता के बीच वादों की फेहरिस्त लेकर उतरे हैं। शिक्षा, रोजगार, महिला सशक्तिकरण, किसानों के अधिकार, आरक्षण, और बिजली जैसी जनजीवन से जुड़ी मूलभूत सुविधाओं पर कई बड़े-बड़े वादे किए जा रहे हैं।
हर पार्टी का दावा है कि उसके पास "बदलाव" और "विकास" का ब्लूप्रिंट है। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या यह वादा व्यावहारिक हैं? क्या बिहार की आर्थिक, प्रशासनिक और संवैधानिक सीमाएं इसे पूरा करने की अनुमति देती हैं?
यह वादा सबसे अधिक ध्यान आकर्षित कर रहा है। चुनावी घोषणाओं में कहा गया है कि सरकार बनने के 20 दिनों के भीतर हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी दी जाएगी। जबकि बिहार में लगभग 12 करोड़ की आबादी और 2.3 करोड़ परिवार हैं। राज्य सरकार के पास कुल 4.7 लाख सरकारी पद हैं, जिनमें से लगभग 3.8 लाख पहले से भरे हुए हैं। यानि सरकारी ढांचे में अधिकतम 90,000 से 1 लाख नई नौकरियों की ही प्रशासनिक क्षमता है। यदि हर परिवार के एक सदस्य को नौकरी देनी है, तो लगभग 2 करोड़ नई सरकारी नौकरियों की आवश्यकता होगी, जो आर्थिक दृष्टि से असंभव है।
एक औसत सरकारी कर्मचारी पर सालाना वेतन, भत्ता और पेंशन मद मिलाकर 5 लाख रुपए का खर्च आता है। अगर 2 करोड़ लोगों को नौकरी दी जाए, तो कुल वार्षिक खर्च होगा 5 लाख × 2 करोड़ = ₹100 लाख करोड़ (यानी ₹100 ट्रिलियन)। यह राशि भारत के पूरे वार्षिक बजट (₹47 लाख करोड़) से भी दो गुना से अधिक है। स्पष्ट है कि यह वादा लोकलुभावन (populist) तो है, लेकिन आर्थिक रूप से असंभव है।
“माय बहिन मान योजना” महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त करने के नाम पर लाई गई है। इसका उद्देश्य बताया गया है कि हर महिला या अविवाहित लड़की को ₹2,500 महीना भत्ता दिया जाएगा। बिहार में महिलाओं की जनसंख्या लगभग 6 करोड़ है। यदि हर महिला को ₹2,500 दिया जायगा, तो मासिक खर्च होगा ₹15,000 करोड़। वार्षिक खर्च = ₹15,000 करोड़ × 12 = ₹1.8 लाख करोड़। जबकि बिहार का वार्षिक बजट लगभग ₹2.7 लाख करोड़ का है। अगर यह योजना लागू होगी, तो केवल इस एक योजना पर बजट का 65% हिस्सा खर्च हो जाएगा। ऐसी स्थिति में शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, सुरक्षा, और प्रशासन जैसे जरूरी विभागों का संचालन प्रभावित होगा।
योजना का उद्देश्य सामाजिक दृष्टि से सराहनीय है, परंतु आर्थिक यथार्थ इसे दीर्घकालिक रूप से टिकाऊ नहीं बनाता है। यह केवल राजनीतिक आकर्षण का साधन प्रतीत होता है।
“ओल्ड पेंशन स्कीम” (OPS) को बहाल करने का वादा कई राज्यों में राजनीतिक बहस का केंद्र बना हुआ है। बिहार में भी यह एक बड़ा मुद्दा है। नई पेंशन स्कीम (NPS) 2004 में लागू हुई थी, जिसमें कर्मचारी और सरकार दोनों योगदान करते हैं। पुरानी योजना में कर्मचारी को संपूर्ण पेंशन सरकारी खर्चे पर मिलती थी। अगर OPS बहाल होती है, तो सरकार को दीर्घकालिक वित्तीय बोझ उठाना पड़ेगा। वर्तमान में लगभग 6 लाख सरकारी कर्मचारी और 3 लाख से अधिक पेंशनभोगी हैं। अगर OPS लागू होती है, तो आने वाले 20 वर्षों में पेंशन व्यय बढ़कर ₹80,000 करोड़ सालाना तक जा सकता है।
राजनीतिक रूप से OPS बहाल करने का वादा लोकप्रिय हो सकता है, लेकिन आर्थिक दृष्टि से यह राज्य की कमर तोड़ देने वाला निर्णय साबित हो सकता है। वास्तविक समाधान संशोधित NPS में सुधार करके निकाला जा सकता है।
“हर घर को 200 यूनिट बिजली मुफ्त योजना” क्या संभव है? जबकि वास्तविक स्थिति है कि बिहार में कुल 2.2 करोड़ बिजली उपभोक्ता हैं। औसतन 200 यूनिट बिजली की कीमत ₹1,400 से ₹1,600 होता है। अगर सरकार 200 यूनिट मुफ्त देती है, तो वार्षिक भार लगभग ₹40,000 करोड़ होगा। बिजली वितरण कंपनियाँ पहले से ही घाटे में हैं। मुफ्त बिजली की घोषणा से सब्सिडी का बोझ राज्य के बजट पर और बढ़ेगा। केंद्र सरकार पहले ही इस प्रकार की योजनाओं पर राजकोषीय अनुशासन की चेतावनी दे चुकी है।
200 यूनिट मुफ्त बिजली देना अल्पकालिक रूप से संभव है, परंतु दीर्घकाल में यह राजकोषीय असंतुलन को बढ़ा देगा। राज्य के विकास बजट पर इसका नकारात्मक असर पड़ेगा।
“जन स्वास्थ्य सुरक्षा योजना” के तहत हर परिवार को ₹25 लाख का स्वास्थ्य बीमा दिया जाएगा, जो राष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़ा स्वास्थ्य सुरक्षा कवच होगा। बिहार में लगभग 2.3 करोड़ परिवार हैं। प्रति परिवार प्रीमियम का औसत (यदि सरकारी योजना हो) ₹3,000 मानें, तो वार्षिक खर्च होगा ₹3,000 × 2.3 करोड़ = ₹6,900 करोड़। हालांकि, ₹25 लाख का कवरेज देने के लिए बीमा कंपनियों का प्रीमियम कहीं अधिक होगा ₹10,000 से ₹12,000 प्रति परिवार। ऐसे में वार्षिक खर्च ₹25,000–₹27,000 करोड़ तक पहुंच सकता है।
यदि इसे चरणबद्ध तरीके से लागू किया जाए (जैसे केवल BPL या कमजोर वर्गों के लिए), तो यह योजना उपयोगी है। परंतु पूरे राज्य के लिए ₹25 लाख का कवरेज देना अत्यधिक महंगा और अव्यवहारिक है।
“सभी फसलों पर MSP और APMC मंडी की बहाली”- बिहार ने 2006 में APMC मंडियों को समाप्त कर दिया था। किसान अब निजी व्यापारियों या खुले बाजार पर निर्भर हैं। MSP केवल केंद्र सरकार की नीति के अंतर्गत है, और राज्य सरकार इसे स्वतंत्र रूप से लागू नहीं कर सकती है। राज्य स्तर पर सभी फसलों की MSP पर खरीद के लिए भारी भंडारण, परिवहन, और भुगतान तंत्र चाहिए। इसके लिए ₹30,000 से ₹50,000 करोड़ का अतिरिक्त वार्षिक खर्च आएगा।
राज्य सरकार चाहें तो राज्य MSP योजना शुरू कर सकती है, पर सभी फसलों पर गारंटी देना संवैधानिक रूप से कठिन और वित्तीय रूप से असंभव है। यह वादा आंशिक रूप से सच कहा जा सकता है।
“आरक्षण 75% तक बढ़ाया जाएगा”- भारत के संविधान की व्याख्या के अनुसार (मंडल आयोग केस 1992), आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% तय की गई है। हालांकि, कुछ राज्यों (जैसे तमिलनाडु) ने इसे 69% तक बढ़ाया है, पर वह नौवीं अनुसूची (Schedule IX) में दर्ज विशेष प्रावधानों के तहत है। अगर बिहार 75% आरक्षण लागू करता है तो इसके लिए राज्य सरकार को संविधान संशोधन या नौवीं अनुसूची में शामिल होने की मांग करनी होगी, जो केवल केंद्र की अनुमति से संभव है।
राज्य सरकार अकेले 75% आरक्षण लागू नहीं कर सकती है। यह वादा संवैधानिक रूप से संदिग्ध और राजनीतिक रूप से प्रतीकात्मक है। स्थानीय निकायों (पंचायत, नगर परिषद) में आरक्षण की व्यवस्था 73वें और 74वें संशोधन के तहत है। राज्य अपने अनुपात के अनुसार सीमा के भीतर संशोधन कर सकता है। यह वादा संभव तो है, लेकिन इसके लिए राज्य चुनाव आयोग और उच्च न्यायालय की स्वीकृति आवश्यक होगी।
यह वादा व्यावहारिक और कानूनी रूप से संभव है, बशर्ते आरक्षण कुल सीमा (50%) को न लांघे।
“वक्फ बिल समाप्त करेंगे” और “अल्पसंख्यकों के हक़ की रक्षा” यह वादा राजनीतिक रूप से अत्यंत संवेदनशील है। वक्फ एक्ट 1995 केंद्र सरकार का कानून है। राज्य सरकार इसे समाप्त नहीं कर सकती है, केवल इसके प्रवर्तन नियमों में संशोधन कर सकती है। वक्फ बोर्ड धार्मिक संपत्तियों के प्रबंधन के लिए है, जिसका सीधा संबंध अल्पसंख्यक अधिकारों से है।
राज्य स्तर पर वक्फ एक्ट समाप्त करना संवैधानिक रूप से असंभव है। यह वादा राजनीतिक विमर्श को प्रभावित करने वाला तो है, लेकिन कानूनी रूप से अस्थायी ही कहा जा सकता है।
“बोधगया मंदिर की जिम्मेदारी सिर्फ बौद्धों को”- बोधगया मंदिर का संचालन बोधगया मंदिर प्रबंधन समिति (BTMC) करती है। इसमें बौद्ध और हिन्दू दोनों धर्मों के प्रतिनिधि शामिल हैं। यह व्यवस्था Bodh Gaya Temple Act, 1949 के तहत है।
अगर इसे बदला जाय तो इस कानून में संशोधन के लिए राज्य विधानसभा की मंजूरी और राज्यपाल की सहमति जरूरी है। परंतु किसी धर्म विशेष को हटाकर प्रबंधन देना धार्मिक भेदभाव के दायरे में आ सकता है, जो अनुच्छेद 25-28 के विरुद्ध होगा।
यह वादा संवेदनशील है और संवैधानिक एव सामाजिक विवाद को जन्म दे सकता है। कानूनी रूप से इसे लागू करना लगभग असंभव है।
“OBC एक्ट लाने का वादा”- SC-ST एक्ट केंद्र सरकार द्वारा 1989 में पारित किया गया था, जो सामाजिक उत्पीड़न से सुरक्षा देता है। इसी तर्ज पर OBC एक्ट लाने का वादा किया गया है। जाति आधारित उत्पीड़न से बचाव का दायरा पहले से ही IPC की धाराओं और SC-ST एक्ट में है। OBC एक्ट के लिए नए सिरे से कानून बनाना संवैधानिक संशोधन की मांग करेगा।
यह वादा राजनीतिक रूप से प्रतीकात्मक है, न कि व्यावहारिक। राज्य स्तर पर ऐसा अधिनियम लाना कानूनी रूप से जटिल है।
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में जो वादे किए जा रहे हैं, उनमें से कुछ भावनात्मक हैं, कुछ सामाजिक सुधार की दिशा में, और कई पूरी तरह से लोकलुभावन (populist)। राजनीतिक दलों के बीच प्रतिस्पर्धा इस हद तक बढ़ चुकी है कि आर्थिक वास्तविकता को नजरअंदाज किया जा रहा है। बिहार की अर्थव्यवस्था मुख्यतः केंद्र की सहायता, कृषि और प्रवासी आय पर निर्भर करती है। ऐसे में 5 लाख करोड़ से अधिक खर्च वाले वादे राज्य की वित्तीय स्थिति को अशांत कर सकता है। -------------
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