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बिछड़ते रिश्तों का सच

बिछड़ते रिश्तों का सच

✍️ डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"
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बंद 1:
बस पति-पत्नी और बच्चे,
आते कभी-कभी मेहमान,
मां-बाप की बात छोड़ो,
पराए हो गए भाई जान।
अपनों के बीच खोए ऐसे,
मानो हर रिश्ता अंजान,
सगे संबंधियों का प्यार,
अब तो सपना है श्रीमान।
शायरी:-----
वो जो कभी साँझ ढले साथ बैठा करते थे,
अब तो नमस्ते भी फोन पर ही करते हैं।
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बंद 2:
अब तो रिश्तों में मतलब ढूँढे,
दिल से दिल का नाता खोया,
साथ बैठकर जो खाया करते,
अब हर कोना खाली रोया।
बचपन की वो छत की बातें,
हँसी ठिठोली सब बिसराई,
मोबाइल में उलझा जीवन,
आँखें भी अब तो हैं पराई।
शायरी:-------
चेहरों पर हँसी है, पर दिल में है खालीपन,
स्मृतियों में ही बसते हैं अब अपनेपन के तन।
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बंद 3:
संघर्षों में घुल गए रिश्ते,
अपनापन भी आज पराया,
कभी जो थे साँझा सपना,
अब हर ख्वाब सिर्फ़ साया।
बूढ़े माँ-बाप आँसू पीते,
बेटे बैठे देश-विदेश,
नाम रहे बस वॉट्सऐप में,
मिलना अब भी है विशेष।
शायरी:-----
जिस घर में गूंजते थे बच्चों के मीठे बोल,
अब वहाँ सन्नाटों ने लिखी है अपनी पोल।
बंद 4:
त्योहारों पर जो गले लगते,
अब फोटो में मुस्काते हैं,
पल दो पल की बातों में,
सालों के गम छुपाते हैं।
रिश्ते अब नज़रों से दूर,
दिलों से भी हुए विराने,
घर आँगन अब सूने-सूने,
कहकहों के बीते फ़साने।
शायरी:------
तस्वीरों में कैद रह गईं वो हँसी की रेखाएँ,
रिश्ते तो निभते अब मात्र औपचारिकताएँ।


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