युगों के आईने में सनातन संस्कृति
सत्येन्द्र कुमार पाठक
सनातन धर्म का इतिहास केवल तिथियों और घटनाओं का संकलन नहीं है, बल्कि यह एक विशाल कालक्रम है जिसे 'युगों' में विभाजित किया गया है—सतयुग (कृतयुग), त्रेतायुग, द्वापरयुग, और कलियुग। इन युगों में धर्म की मात्रा, मानवीय आचरण, और विभिन्न जातियों, संस्कृतियों एवं शासकों के उदय तथा पतन के पैटर्न को दर्शाया गया है। यह आलेख इन्हीं चार युगों में जातियों, शासकों, और आध्यात्मिक प्रवृत्तियों के क्रमिक विकास और परिवर्तन का एक विस्तृत पौराणिक विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, अधिकांश जातियों का मूल स्रोत महर्षि कश्यप और उनकी विभिन्न पत्नियाँ थीं, जो स्वयं ब्रह्मा की परंपरा से जुड़े है। दैत्य दिति के पुत्र थे, दानव दनु के, और राक्षस महर्षि कश्यप या पुलस्त्य के पौत्र विश्रवा की संतान थे। ये सभी महर्षि कश्यप की पत्नियों की संतान होने के कारण देवों के सौतेले भाई थे, जो अक्सर सत्ता और वर्चस्व के लिए संघर्षरत रहे। सतयुग के शासक: इस युग में हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष जैसे शक्तिशाली दैत्यराज थे, जिन्होंने तपस्या के बल पर अपार शक्ति अर्जित की, लेकिन अहंकार और अधर्म के कारण भगवान विष्णु के अवतारों (वराह और नृसिंह) द्वारा मारे गए। त्रेतायुग के शासक: यह युग राक्षसों के चरम उत्कर्ष का साक्षी रहा। लंका के राक्षसराज रावण, उसका भाई कुम्भकर्ण, और पुत्र मेघनाद, शक्ति, माया और युद्ध कौशल में अद्वितीय थे, लेकिन अधर्म के कारण भगवान श्रीराम के हाथों उनका विनाश हुआ।द्वापरयुग के शासक: इस युग में दैत्य या राक्षस सीधे शासक के रूप में नहीं थे, बल्कि मानव शासकों के बीच अधर्म के बीज बोने वाले तत्वों के रूप में थे, जैसे मगध का जरासंध, चेदि का शिशुपाल, और कौरव (मानव शासक होते हुए भी अधर्मी)। यह दिखाता है कि जैसे-जैसे युग बीतता गया, अधर्म का प्रभाव बाहरी जातियों से हटकर स्वयं मानव समाज के भीतर स्थापित होने लगा।
देव (सुर - धर्म के प्रतिनिधि) - उत्पत्ति: देव अदिति के पुत्र थे, महर्षि कश्यप से। वे स्वर्गलोक के निवासी और धर्म के पालक थे। युगों में भूमिका: तीनों युगों में देवराज इंद्र प्रमुख रहे। सतयुग में, देवगण पूर्णतः धर्म का पालन करते थे। त्रेतायुग में भी उनका महत्व बना रहा। द्वापरयुग में, धर्म के आंशिक ह्रास के कारण देवों का प्रभाव पहले जितना सशक्त नहीं रहा, और वे अक्सर मानव शासकों (जैसे पांडवों) की सहायता के लिए प्रेरित होते थे।
मानव (मनु की संतान) - उत्पत्ति: मनु (मनुष्य जाति के जनक) से। सतयुग: मनु, इक्ष्वाकु (अयोध्या), और महाराज बलि (दानवीरता के लिए पूजित) जैसे शासकों का काल था, जहाँ धर्म और सत्य का बोलबाला था। त्रेतायुग: अयोध्या के दशरथ और भगवान श्रीराम (सूर्यवंश) तथा मिथिला के जनक जैसे धर्मात्मा राजाओं का शासन था। यह मानव शासकों के लिए धर्म के पालन का आदर्श युग था।
द्वापरयुग: यह मानवों के बीच ही धर्म और अधर्म के द्वंद्व का युग था। पांडु/धृतराष्ट्र, युधिष्ठिर और अंत में भगवान श्रीकृष्ण (यादव) जैसे महत्वपूर्ण शासक/मार्गदर्शक हुए, जिसने धर्म की जटिलता को दर्शाया।
नाग, गरुड़, गंधर्व, अप्सरा (अन्य प्रमुख जातियाँ) - नाग और गरुड़ कश्यप की पत्नियों कद्रू और विनता के पुत्र थे। नागलोक पाताल में स्थित था। सतयुग और त्रेतायुग में शेषनाग और वासुकी जैसे नाग धर्म का पालन करते थे, जबकि द्वापरयुग में तक्षक जैसे नागों ने अधर्म का प्रतिनिधित्व किया।गंधर्व (संगीतकार) और अप्सराएं (नर्तकियाँ) स्वर्गलोक से जुड़ी थीं, जिन्होंने तीनों युगों में अपनी कलात्मक भूमिका निभाई।
सांस्कृतिक और दार्शनिक प्रवृत्तियाँ - युगों के परिवर्तन के साथ, सनातन संस्कृति की प्रमुख दार्शनिक प्रवृत्तियों—शैव, वैष्णव, शाक्त और ब्रह्म—में भी बदलाव आए। शैव (भगवान शिव) - सतयुग: तपस्या, वैराग्य और भस्म रमाकर साधना करने पर जोर। शिव की पूजा देव और दानव दोनों करते थे। त्रेतायुग: भगवान राम द्वारा रामेश्वरम में शिव की पूजा से शैव भक्ति का व्यापक प्रसार हुआ। शिव गुरु और संहारक के रूप में पूजे जाते थे। द्वापरयुग: महाभारत के पात्रों द्वारा शिव की आराधना। शिव को गुरु, योगी और संहारक के रूप में पूजा जाता रहा। वैष्णव (भगवान विष्णु) - सतयुग: भगवान विष्णु का पूर्ण वर्चस्व। सत्य और धर्म की स्थापना के लिए हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु का वध। त्रेतायुग: भगवान श्रीराम के रूप में विष्णु के अवतार द्वारा धर्म की स्थापना। वैष्णव धर्म का यह चरम काल था, जिसने मर्यादा और आदर्शों की नींव रखी। द्वापरयुग: भगवान श्रीकृष्ण के रूप में अवतार, जिन्होंने योग, ज्ञान और भक्ति का संदेश दिया। इस युग में वैष्णव धर्म एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में कार्य किया। शाक्त (आदि शक्ति देवी) - देवी की पूजा शक्ति के रूप में तीनों युगों में प्रमुख रही। सतयुग में दक्ष यज्ञ और शक्तिपीठों की स्थापना हुई। त्रेता में देवी सीता के रूप में शक्ति का प्रदर्शन हुआ, और द्वापर में योगमाया और दुर्गा के विभिन्न रूपों में पूजा हुई।
ऋषि/गुरु संस्कृति - सतयुग: ऋषि-मुनियों (जैसे वशिष्ठ, विश्वामित्र) का समाज पर पूर्ण प्रभाव था। तपस्या और वेदों का ज्ञान इस युग की संस्कृति का आधार था। त्रेतायुग: ऋषि-मुनि राजाओं के सलाहकार (जैसे वशिष्ठ राम के गुरु) और मार्गदर्शक बने रहे। द्वापरयुग: धर्म के ह्रास के बावजूद व्यास और अन्य ऋषियों ने वेदों और पुराणों का संकलन कर ज्ञान को संरक्षित रखा।
वर्ण व्यवस्था का उदय और कलियुग में उसका प्रभाव - वर्ण व्यवस्था हिंदू धर्मग्रंथों में एक मौलिक अवधारणा है, जिसकी उत्पत्ति ऋग्वेद के पुरुष सूक्त से मानी जाती है, जहाँ चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) की उत्पत्ति विराट पुरुष/ब्रह्मा के विभिन्न अंगों से बताई गई है।
वर्ण उत्पत्तिकर्ता (स्रोत) उत्पत्ति का भाव संस्कृति एवं कर्म
ब्राह्मण विराट पुरुष/ब्रह्मा के मुख से ज्ञान और वाणी का प्रतीक अध्ययन, अध्यापन, यज्ञ, धर्म-पालन।
क्षत्रिय विराट पुरुष/ब्रह्मा की भुजाओं से बल और शौर्य का प्रतीक शासन, युद्ध, धर्म की रक्षा, प्रजा-पालन।
वैश्य विराट पुरुष/ब्रह्मा की जंघाओं से उत्पादन और पोषण का प्रतीक कृषि, पशुपालन, व्यापार (अर्थव्यवस्था)।
शूद्र विराट पुरुष/ब्रह्मा के चरणों से सेवा और आधार का प्रतीक तीनों वर्णों की सेवा, श्रम-आधारित कार्य है।
युगों में वर्ण व्यवस्था का स्वरूप
सतयुग (कृतयुग): यह कर्म-आधारित वर्ण व्यवस्था का आदर्श काल था। व्यक्ति अपने गुण और कर्म से अपना वर्ण निर्धारित करता था। वर्णों के बीच कोई द्वेष या हीनता का भाव नहीं था।
त्रेतायुग: वर्ण व्यवस्था में कर्म के साथ जन्म का प्रभाव बढ़ने लगा। परशुराम जैसे 'क्षत्रिय ब्राह्मण' (जन्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय) इस संक्रमण को दर्शाते हैं। वर्णों में कठोरता की शुरुआत हुई।
द्वापरयुग: जन्म-आधारित व्यवस्था का प्रभुत्व बढ़ा। धर्म के ह्रास के कारण वर्णों के कर्मों में शिथिलता आई, और राजा तथा ब्राह्मण अपने कर्तव्यों से भटकने लगे। यहीं से 'जाति' व्यवस्था का उदय हुआ, जो जन्म पर आधारित थी।
कलियुग में जातियों का प्रभाव (पौराणिक दृष्टिकोण) - पौराणिक ग्रंथों, विशेष रूप से श्रीमद् देवी भागवत पुराण और महाभारत के अनुसार, कलियुग धर्म का सबसे कमजोर युग है। इस युग में: वर्ण का आधार: जन्म-आधारित जाति ही सर्वोपरि हो गई है, जिससे 'गुण-कर्म' आधारित विभाजन का लोप हो गया।
ब्राह्मणों पर प्रभाव: कई ब्राह्मण पाखंडी हो जाएंगे, वेदों का ज्ञान खो देंगे, और धन तथा अहंकार को महत्व देंगे। उन्हें प्राचीन युगों के राक्षसों के समान बताया गया है। क्षत्रिय/शासक: शासक म्लेच्छों (दुष्ट आचरण वाले) के समान हो जाएंगे, जो क्रोधित होकर प्रजा का शोषण करेंगे।वैश्य और शूद्र: वैश्य वर्ग लोभी हो जाएगा, और समाज में निम्न वर्ग के प्रति उपेक्षा और शोषण बढ़ेगा। जाति का उदय कलियुग में सभी का जन्म लगभग शूद्र के समान होता है (अर्थात् जन्म से कोई भी व्यक्ति पूर्ण ज्ञान या धर्म का पालन नहीं करता)। समाज कर्मप्रधान की जगह जातिप्रधान हो जाएगा, जिससे कलह और क्लेश बढ़ेंगे।
धर्म के इस घोर ह्रास के बावजूद, कलियुग में भक्ति (नाम जप, भजन) को ही मोक्ष का सबसे सुगम मार्ग माना गया है।
युगों का यह चक्र सनातन संस्कृति के सार को दर्शाता है: धर्म और अधर्म का शाश्वत द्वंद्व। सतयुग में धर्म अपनी पूर्णता पर था, लेकिन प्रत्येक उत्तरोत्तर युग में (त्रेता, द्वापर) धर्म का एक-एक पाद (भाग) कम होता गया।
दैत्य/राक्षस से लेकर मानव शासकों तक, हर जाति के माध्यम से यही दिखाया गया कि सत्ता और शक्ति का दुरुपयोग विनाशकारी होता है।शैव, वैष्णव, शाक्त परंपराओं ने यह सिद्ध किया कि चाहे युग कोई भी हो, ईश्वर की आराधना ही मनुष्य को सत्य के मार्ग पर टिकाए रखती है। वर्ण व्यवस्था का पतन यह दिखाता है कि जब समाज कर्म और गुण को छोड़कर केवल जन्म को महत्व देता है, तो वह विकृत हो जाता है, जैसा कि कलियुग में देखा गया।, सनातन संस्कृति का कालक्रम युगों के माध्यम से मनुष्य को यह संदेश देता है कि चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी बदलें (जैसे कलियुग में), व्यक्तिगत आचरण, सत्य और भक्ति ही वह शक्ति है जो मोक्ष की ओर ले जा सकती है—यह उस सनातन नियम की अटल प्रकृति है जो युगों के परिवर्तन के बावजूद अपरिवर्तित रहता है।
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