सिंधु का सा ज्वार उठता है हृदय में ं
जब किसी की टीस आँखों में उतर आती।।शब्द सारे मौन हो जाते रहे हैं
व्यर्थ के संगीत घिल्लाते रहे हैं।
जब कहीं इंसानियत घायल पड़ी हो
लोग कन्नी काट कर चलते रहे हैं।।
व्योम की चादर नही क्यों दरक जाती है
जब किसी की तडंप आँखों में उभर आती।।
जब कोई अपना बहुत आत्मीय हो जाए
स्वार्थ की लौ में सरल विश्वास खो जाए।
धड़कनो की तीव्रता में हो विकल स्पंंदन
और कटुतम दुष्टता का बीज बो जाए।।
प्रेम की भाषा असंस्कृत चीखने लगती
तब हृदय ज्वाला प्रबल होकर भड़क जाती।।
आँसुओं के गाँव में मुस्कान का आना
अँधेरे में अचानक आलोक का छाना
कहीं अचरज से तनिक भी कत न हो सकती
और सूने द्वार निर्गुण जोर से गाना।।
जब खड़ा होने लगेगा पंगु मन विश्वास
आस्था की एक स्वर्णिम रेख उग आती।। ८-५
डा रामकृष्ण, गयाजी, बिहार
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