"ब्राह्मण की बुद्धि"
(स्वजातीय आत्ममंथनात्मक कविता)✍️ डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"
कुंभ के मेले में लगी थी एक दुकान,
लिखा था ऊपर, बुद्धि विक्रय स्थान।
जगह-जगह जार, कीमतें थी बेढंग,
देखा तो चौंका, हुआ मन भी दंग।
ब्राह्मण की बुद्धि — मात्र सौ रुपये में लेलो,
अन्य जातियाँ की — हजारों रुपए किलो।
गुर्जर, दलित, यादव, जाट, मुसलमान,
हर एक की बुद्धि,- कीमत छूती आसमान।
मैं क्रोधित हुआ, पहुँचा स्टाल के पास,
कहा, क्या मज़ाक है? कैसी ये बात?"
वो मुस्काया, कहा सरल है बात जानिए,
कीमत जानने से पहले खुद को पहचानिए।
बुद्धि तो है अपार, पर बिखरी हुई,
हर ब्राह्मण की सोच बस अपनी हुई।
जो संगठित न हो, वो कीमत क्या पाए?
जो सदा एक दूसरे को ही नीचा दिखाए।”
ब्राह्मणों की बुद्धि का कोई तोड़ नहीं,
पर जिसमें एकता नहीं, तो उपयोग नहीं।
इतिहास स्वर्णिम, पर वर्तमान है धूमिल,
खुद के ही जाल में उलझे, बिखरे तिल-तिल।
न कोई नेता का साथ, न समाज की बात,
हर घर में बस, अहंकार की बरसात।
जहाँ सहयोग नहीं, सिर्फ आपस में प्रतियोग,
उस बुद्धि की कहीं नहीं होता कोई उपभोग।"
मेरे होंठों पे शब्द रुक गए, क्रोध हुआ छूमंतर,
अब समझ में आई बुद्धि की कीमत का अंतर।
यह एक हास्य कविता नहीं, है चेतावनी,
जो झकझोर दे मृत आत्मा की रवानी।
अब समय है गाढ़ी नींद से जागने का,
टूटे हुए मनोबल को फिर से जोड़ने का।
बुद्धि की नहीं, अब है एकता की दरकार,
वरना हो जाएंगे, इतिहास का अख़बार।
🌹 *जय भास्कर 🙏 🙏 जय परशुराम* 🌹
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