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"आज के कवि" और हिंदी की हालत

"आज के कवि" और हिंदी की हालत


✍️ डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"

आज के कवि अपनी रचना में,

छंद-अलंकार सब भूल गए।

छंद छोड़कर स्वनाम-छंद के,

भावों में ही झूल गए।


उल्टी-सीधी तुकबंदी में,

"फीलिंग्स" जब ढोई जाती।

"काव्य" नहीं, बस कंटेंट बनकर,

कविता खूब बिकोई जाती।


साहित्य अब कंटेंट बना है,

कवि बने क्रिएटर।

रस, छंद, अलंकार बिसराए,

कविता हुई फिल्टर।


एनीमे-से फेस, शेकर्स बने,

प्रतीकों की परिभाषा।

इमोजी में पिरोई जाती,

साहित्य की जटिल भाषा।


'विरह' दिल में, 'श्रृंगार' ट्रेंड में,

सब कुछ रीलों में समाया।

'वीर रस' भी जेन-जी के,

फॉलोअर्स से लुभाया।


‘रामधारी’ अब फेसबुक पर,

‘नामधारी’ मीम्स में आते।

काव्य-पाठ की जगह अब,

मोबाइल से रील बनाए जाते।


गद्य-पद्य का भेद मिटा,

सब कुछ स्क्रिप्ट में समाया।

खरीद-खरीद के ट्रॉफियाँ,

घर की अलमारी में सजाया।


अहंकार जब कविता में,

दुर्वचनों के संग आता है।

मंचों पर हिंदी के मसीहा,

हिंग्लिश घुट्टी पिलाता है।


सरस्वती-वंदना भूलकर,

हो रही नेताओं की आरती।

हिन्दी की इस दुर्दशा पर,

रो रही मां भारती।


'शब्दों' की आत्मा अब जैसे,

साहित्य से निर्वासित है।

'भावनाओं' के आंगन में,

कविवर पोषित हैं, समाहित हैं।


हे हिन्दी! न थकना,

न रुकना, न झुकना।

तेरे शब्दों में अब भी अग्नि है,

तू स्मृति में सुलगना।


एक दिन फिर कोई दिनकर,

'तुलसी' सा कलम चलाएगा।

तब ये दिखावटी अधिनायक,

कविता का मर्म समझ पाएगा।

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