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घर - दुआर

घर - दुआर


जय प्रकाश कुवंर

पुराना जमाना हो या नया जमाना, गाँव देहात हो या शहर, महल अट्टारी हो या झोंपड़ी, जब भी कोई अपना निवासस्थान बनाता है, तब उस निवासस्थान के सामने कुछ खाली जगह जरूर छोड़ता है। आधुनिक अपार्टमेंट कल्चर की बात अगर छोड़ दें, तो अपनी अपनी हैसियत एवं मकान बनाने की जमीन की उपलब्धता के अनुसार हर कोई घर के सामने खाली जगह छोड़ता है। जहाँ शहर में इसे लाॅन अथवा सहनजमीन कहते हैं, वहीं गाँव देहात में इसे दुआर कहते हैं।

अगर आप गरीब की झोंपड़ी या मिट्टी का मकान भी देखियेगा तो उसके सामने थोड़ा खाली जगह अथवा दुआर जरूर देखने को मिलेगा।

यह दुआर बड़े ही काम का जगह होता है। घर के अंदर से निकलकर बाहर खड़ा होने, कुर्सी, मेज, चौकी, चटाई या चारपाई डालकर बैठने तथा सोने के लिए यह दुआर सबसे उपयुक्त जगह होता है। गाँव देहात में तो दुआर का उपयोग तरह तरह से होता है। गर्मियों के दिनों में चौकी अथवा चारपाई बिछाकर खुले आसमान के नीचे ठंढक में बैठने तथा सोने के लिए इससे उपयुक्त जगह गाँव देहात में दूसरा कोई नहीं रहा है। खासकर परिवार के बड़े बुजुर्गों एवं बच्चों के लिए गर्मियों में रात के सोने का सबसे आरामदायक जगह दुआर ही हुआ करता था। लोग एक दूसरे के दुआर पर देर रात तक बैठकर गपशप करते थे। इस रात दिन के मेल मिलाप से गांव में प्रेम और भाईचारा बढ़ता था।

जब घर में किसी लड़की की शादी होती है और दरवाजे पर बारात आती है तो वर पूजन की एक रीति होती है, द्वार पूजा। यह रीति सदियों से घर के सामने दुआर पर ही होती है।

कुछ लोग तो फसल कटाई के बाद फसल के बंडल को अपने दुआर पर रखकर उसे धूप में सुखाते हैं और उसकी दंवाई, मंड़ाई करके अन्न बाहर निकालते हैं। जो लोग गाय, भैंस, बैल आदि पशु पालते रहे हैं, वो उन्हें बांधने, खिलाने आदि के लिए दुआर का ही उपयोग करते थे।

घर में रखे अनाज को नमी से बचाने और उपयोग में लाने के लिए उसे दुआर पर चटाई आदि पर फैला कर अच्छी तरह धूप में सुखाया जाता है।

१९६०-७० के दशक तक गाँव देहात का छोटा बड़ा हर परिवार रात को सोने के लिए दुआर का भरपूर उपयोग करता था। लेकिन उसके बाद धीरे धीरे परिवर्तन आना शुरू हो गया। गाँव की आबादी धीरे धीरे रोजगार की खोज में शहर की ओर पलायन करने लगी। गाछ वृक्ष कटने लगे और बाग उजड़ने लगे। खेती योग्य अधिकांश जमीन भी परती रहने लगे और उसमें झाड़ियाँ उपजने लगी। इसका असर ये हुआ कि जो हिंसक जानवर गाँव बस्ती से दूर छिपकर निवास करते थे, वो अब अपना खाना ढूंढते हुए गाँव में प्रवेश करने लगे। उन्होंने रात के अंधेरे में दुआर पर सोये लोगों पर हमला करना भी शुरू कर दिया। ऐसी बहुत सारी घटनाएं गाँव देहात में हुई जिसमें हिंसक जानवरों, जैसे सियार, लोमड़ी, भेड़िया, जंगली सुअर तथा तेन्दुओं ने रात में गाँव में घुसकर अपने दुआर पर सोये बुढ़ों तथा बच्चों को बुरी तरह घायल कर दिया अथवा मार डाला। जंगली हिंसक इन जानवरों की दहसत की वजह से लोगों ने रात में दुआर पर सोना बंद कर दिया। धीरे धीरे दुआर खाली रहने लगा और लोग शाम को अंधेरा होते ही अपने घर के अंदर बंद रहने लगे।

एक समय ऐसा था जब गाँव का हर दुआर रौनक से भरा रहता था, अब बिरान हो गया। आज गाँव देहात में स्थिति यह है कि जहाँ भी जाइए शाम होते ही सब दुआर खाली हैं और भयावह लगता है। जो कुछ लोग गाँव में रह भी रहे हैं, वो शाम को अंधेरा होते ही अपने घर के अंदर दुबक जाते हैं और अंदर से किवाड़ बंद कर लेते हैं। आज कल हिंसक जंगली जानवर अंधेरा होते ही गाँव की तरफ बढ़ आते हैं और अपना खाना तलाशने लगते हैं। खबरों में यह आए दिन सुनने को मिलता है कि अमुक गाँव में भेड़िया, तेंदुआ अथवा बाघ घुस आया है और लोगों में दहसत छाया हुआ है। कुछ जगह हिंसा की घटनाएं भी सुनने में आती हैं।

इस प्रकार यह देखा जा रहा है कि जो हर घर का दुआर गाँव गाँव में रौनक का स्थान हुआ करता था, वो अब बिरान हो चुका है।



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