श्राद्धकर्म की कुछ विधियों का अध्यात्मशास्त्र

हिंदु धर्म में उल्लेखित ईश्वरप्राप्ति के मूलभूत सिद्धांतों में से एक सिद्धांत ‘देवऋण, ऋषिऋण, पितृऋण एवं समाजऋण, इन चार ऋणों को चुकाना है । इनमें से पितृऋण चुकाने के लिए पितृपक्ष में ‘श्राद्ध’ करना आवश्यक है । माता-पिता तथा अन्य निकटवर्ती संबंधियों की मृत्योपरांत, उनकी आगे की यात्रा सुखमय एवं क्लेशरहित हो तथा उन्हें सद्गति प्राप्त हो, इस उद्देश्यसे किया जानेवाला संस्कार है ‘श्राद्ध’ । पितृपक्ष में श्राद्धविधि करने से अतृप्त पितरों के कष्टसे मुक्ति होनेसे हमारा जीवन भी सुखमय होता है । श्राद्ध की विभिन्न विधियों का अध्यात्मशास्त्र हम इस लेख के माध्यम से जानेंगे। इससे श्राद्ध जैसे धार्मिक कर्म का महत्व और श्रेष्ठता समझ में आएगा।
देवकार्य में निषिद्ध मानी जाने वाली चाँदी की वस्तुएँ श्राद्ध में क्यों उपयोग की जाती हैं ?
पूजाकार्यों में चाँदी का उपयोग निषिद्ध माना गया है, परंतु उसमें विद्यमान रजोगुण और वायुतत्त्व के कारण पितर नैवेद्य (भोजन) शीघ्र ग्रहण कर पाते हैं, इसलिए श्राद्ध में चाँदी की वस्तुओं का उपयोग किया जाता है।
📖 मत्स्यपुराण के अनुसार :
“सौवर्णं राजतं वाऽपि पितृणां पात्रमुच्यते ।” (अध्याय 17, श्लोक 20 )
अर्थ : पितरों से संबंधित विधि के लिए सोने या चाँदी के पात्र का उपयोग करना चाहिए ।
“शिवनेत्रोद्भवं यस्मात् तस्मात् तत्पितृवल्लभम् । अमङ्गलं तद्यत्नेन देवकार्येषु वर्जयेत् ॥” (अध्याय 17, श्लोक 23)
अर्थ : चाँदी भगवान शंकर के तृतीय नेत्र से उत्पन्न हुई है, इस कारण वह पितृकार्य के लिए उपयुक्त है; परंतु देवकार्य में वह अशुभ मानी जाती है, इसलिए उसका उपयोग टालना चाहिए।
अध्यात्मशास्त्रीय विश्लेषण :
चाँदी में सत्त्वगुण 50%, रजोगुण 40% और तमोगुण 10% है। उसमें वायुतत्त्व भी अधिक है। इसलिए चाँदी के पात्र में रखा नैवेद्य पितरों को शीघ्र ग्रहण करना सम्भव होता है। इस प्रकार पितरों को चांदी का लाभ मिलता है। इसलिए पितृकार्य में इसका उपयोग श्रेष्ठ माना जाता है ।
लेकिन देवकार्य में रजोगुण बढ़ाने वाले चांदी के उपकरणों का उपयोग करने पर देवकार्य से उत्पन्न सात्त्विकता का लाभ सभी को प्राप्त नहीं होता । इसलिए देवपूजा में चाँदी का प्रयोग टालना चाहिए।
-कु. मधुरा भोसले, सनातन संस्था
(श्राद्धविधि में सोना अथवा चाँदी से बनी वस्तुएँ उपयोग की जा सकती हैं। परंतु आज के समय में सामान्य मनुष्य के लिए सोने के उपकरणों का प्रयोग व्यावहारिक दृष्टि से संभव नहीं होता, इसलिए यहाँ मुख्य रूप से चाँदी से संबंधित शास्त्र का उल्लेख किया गया है।)
श्राद्ध में रंगोली क्यों नही बनानी चाहिए ?
रंगोली बनाना शुभकर्म का प्रतीक माना जाता है, जिससे देवताओं की सात्त्विक तरंगों का स्वागत होता है। परंतु पितृकर्म के समय वातावरण में रज-तम प्रधान तरंगें सक्रिय होती हैं। इसलिए श्राद्ध में रंगोली बनाना वर्जित है।
भस्म से रंगोली बनाने पर उससे निकलने वाली तेजतत्त्व प्रधान तरंगें पितरों को अर्पित किये जाने वाले हविर्भाग (अन्न/पदार्थ) का नकारात्मक शक्तियों से रक्षण करती हैं और उन्हें शीघ्र संतुष्टि प्राप्त होती है। इसलिए श्राद्ध में भस्म से रंगोली बनाई जा सकती है ।
देवपूजा की विधियां घड़ी की दिशा में और श्राद्ध की विधियां विपरीत दिशा में क्यों की जाती हैं ?
देवकार्य में सभी विधियां देवताओं को आवाहन करने हेतु होती हैं। देवताओं की सात्त्विक तरंगें घड़ी की दिशा में आती हैं, इसलिए देवपूजा की विधियां उसी दिशा में की जाती हैं । इसे प्रदक्षिणा कहते हैं।
पितृकार्य में रज-तम प्रधान तरंगें घड़ी की विपरीत दिशा में प्रवाहित होती हैं, इसलिए श्राद्ध की सभी विधियां विपरीत दिशा में की जाती हैं। इसे ही अप्रदक्षिण कर्म कहते हैं।
श्राद्ध में देवस्थानी ब्राह्मण पूर्वाभिमुख और पितृस्थानी ब्राह्मण उत्तराभिमुख क्यों बैठते हैं ?
पूर्व-पश्चिम दिशा में क्रिया तरंगें (ज्ञान, इच्छा और क्रिया तरंगें) अधिक घनीभूत होती हैं। मंत्रोच्चार से वे शीघ्र गति प्राप्त करती हैं, इसलिए देवस्थानी ब्राह्मण पूर्व की ओर मुख करके बैठते हैं।
पितरों के आगमन के लिए यमतरंगें उत्तर-दक्षिण दिशा में अधिक सक्रिय रहती हैं। इसलिए पितृस्थानी ब्राह्मण उत्तराभिमुख बैठते हैं।
श्राद्धविधि से होने वाले लाभ
(अ) यजमान को लाभ : ब्राह्मणों के माध्यम से देवता और पितर संतुष्ट होकर यजमान को आशीर्वाद देते हैं। पितृदोष का प्रभाव घटता है तथा परिवार को भी लाभ होता है। तथा पितरों को आगे की गति मिलती है।
(आ) ब्राह्मणों को लाभ : श्राद्ध में दो प्रकार के ब्राह्मण होते हैं – देव-ब्राह्मण और पितृ-ब्राह्मण। देव-ब्राह्मण को सात्त्विक ऊर्जा प्राप्त होती है और उनके माध्यम से देवता भी अन्न ग्रहण करते हैं। पितृ-ब्राह्मण को दिया गया दान शीघ्र फलित होता है।
📚 संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘श्राद्ध’
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