"प्रेम और एकांत की साधना"
पंकज शर्मा
प्रेम की वास्तविक यात्रा स्वयं के भीतर से आरंभ होती है। जो व्यक्ति अपने एकांत से डरकर निरंतर बाहरी संगति खोजता है, वह अनजाने में दूसरों को अपनी मनोवैज्ञानिक रिक्तता भरने का केवल उपकरण बना लेता है—यह प्रेम नहीं, गहन निर्भरता है। जब तक आप अपनी आत्मिक पूर्णता को नहीं जान लेते, आप किसी भी संबंध में एक याचक ( माँगने वाला ) बनकर ही प्रवेश करेंगे। अपनी धुरी पर स्थिर होकर स्वयं में आनंदित होना ही प्रेम की पहली शर्त है; तभी आप दूसरों के जीवन में एक संपूरक के रूप में जुड़ते हैं, न कि एक पूरक के रूप में। प्रेम की नींव है: स्वयं का सच्चा सखा बनना।
मित्रों स्वयं-पर्याप्तता पर टिका प्रेम आकाश की तरह मुक्त और विशाल होता है। ऐसे संबंध में दो स्वतंत्र आत्माएँ मिलती हैं, जो एक-दूसरे को बाँधने के लिए नहीं, अपितु एक-दूसरे के विस्तार में सहयोग करने के लिए तत्पर होती हैं। जहाँ निर्भरता होती है, वहाँ अधिकार-बोध जन्म लेता है; लेकिन जहाँ स्वयंपूर्णता होती है, वहाँ अखंड आदर एवं सहज स्वीकृति का वास होता है। सच्चा प्रेम हमें अपनी रिक्तता से भागने नहीं देता, बल्कि अपने ही सत्य के सम्मुख खड़ा करता है। जब हम किसी को साधन नहीं बनाते, तभी हम उन्हें उनकी स्वतंत्र सत्ता में स्वीकार कर पाते हैं, एवं यही स्वीकृति प्रेम का सबसे उत्कृष्ट रूप है।
. "सनातन"
(एक सोच , प्रेरणा और संस्कार)
पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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