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प्रधानमंत्री मोदी की बीजिंग यात्रा के निहितार्थ

प्रधानमंत्री मोदी की बीजिंग यात्रा के निहितार्थ

डॉ राकेश कुमार आर्य

बीते मई के महीने में जब भारत-पाक संघर्ष के समय प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व की उनके समर्थकों ने प्रशंसा की थी तो देश के विपक्ष को और विशेष रूप से कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को प्रधानमंत्री की वह प्रशंसा अच्छी नहीं लगी थी ।तब उन्होंने यह विमर्श गढ़ने का प्रयास किया था कि यह प्रधानमंत्री की नेतृत्व क्षमता की जीत नहीं है बल्कि सेना के शौर्य की जीत है। यद्यपि 1971 में पाकिस्तान के विरुद्ध हुई जीत को कांग्रेस आज तक उस समय की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की जीत के रूप में स्थापित करती रही है । कांग्रेस बांग्लादेश को पाकिस्तान से अलग करने की श्रीमती गांधी की रणनीति को भी सेना की जीत ने मानकर श्रीमती गांधी की जीत मानती रही है। प्रधानमंत्री मोदी की नेतृत्व क्षमता को श्रीमती गांधी की नेतृत्व क्षमता से कम आंकने के लिए राहुल गांधी ने पाकिस्तान के विरुद्ध की गई सफल कार्यवाही में प्रधानमंत्री की भूमिका को गौण करते हुए उपरोक्त विमर्श गढ़ने का प्रयास किया।
ऐसा करके उन्होंने राजनीतिक नेतृत्व को प्रभावशून्य करने का प्रयास किया था, परंतु अब जबकि प्रधानमंत्री श्री मोदी चीन की यात्रा के समय चीन और रूस के साथ मिलकर भारत की सफल कूटनीतिक विदेश नीति का परिचय देने और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की सारी धमकियों की हवा निकालने में सफल होकर एक विजेता सेनानायक की भांति स्वदेश लौटे हैं तो इसे निश्चित रूप से प्रधानमंत्री की राजनीतिक नेतृत्व की सूझबूझ ही कहा जाना चाहिए। उनकी नेतृत्व क्षमता का प्रमाण माना जाना चाहिए , क्योंकि उन्होंने इस समय अकेले एक बड़ी जंग जीतने में सफलता प्राप्त की है । उनके समर्थक जहां उनकी इस विजय का उत्सव मना रहे हैं वहीं उनकी इस विजय ने विपक्ष के मुंह पर ताले जड़ दिए हैं।
प्रधानमंत्री श्री मोदी की इस रणनीतिक यात्रा के पश्चात तेजी से वैश्विक राजनीति की गति में परिवर्तन अनुभव हुआ है । चीन और भारत का इस प्रकार निकट आना और रूस का एक अच्छे साथी के रूप में भारत के साथ खड़े होकर अमेरिका को ललकारना इस राजनीति का दूरगामी परिणाम निश्चित करता है। इसी समय इसराइल ने भी भारत के साथ एक अच्छे और सच्चे मित्र की भूमिका को निभाने में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी है। कल परसों अमेरिका की यात्रा पर गए पाकिस्तान के फील्ड मार्शल आसिम मुनीर भी चीन में हुई एससीओ की बैठक में अपने प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ के साथ उपस्थित रहे। उन्होंने भी अपनी आंखों से देख लिया है कि बदलते हुए भारत की वैश्विक क्षमता और शक्ति कितनी है ? कितना उसका सम्मान है ? और यह भी कि आज का भारत अमेरिका की भी परवाह नहीं करता है।
हमारा मानना है कि इस सबके उपरांत भी हमें चीन से सावधान रहने की आवश्यकता है। एक समय था, जब देश के प्रधानमंत्री नेहरू ने चीन के तत्कालीन नेतृत्व के द्वारा दिए गए "हिंदी चीनी - भाई-भाई " के नारे में भूल कर दी थी। उस भूल का इतिहास न दोहरा दिया जाए , इसके लिए भारत के राजनीतिक नेतृत्व को अत्यंत सावधानी के साथ आगे बढ़ना होगा। फिर भी प्रधानमंत्री श्री मोदी की इस यात्रा के दौरान जिस प्रकार उन्होंने चीन के लोगों और नेतृत्व को आकर्षित किया है, वह बदलते हुए भारत का सही चित्रण करने में महत्वपूर्ण कारक हो सकता है । हम सभी को इस बात पर गर्व करने का पूरा अधिकार है कि श्री मोदी के नेतृत्व में भारत के वर्चस्व को चीन ने स्वीकार किया है। उसने अपने आचरण और व्यवहार से यह भी स्वीकार कर लिया है कि आज का भारत 1962 का भारत नहीं है।
इसके उपरांत भी चीन और भारत की इस प्रकार की निकटता को "तात्कालिक आधार पर स्थापित किया गया सामंजस्य " ही माना जाना चाहिए।
अच्छी बात यह होगी कि चीन स्थाई रूप में भारत के प्रति अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन लाए । वह भारत को अपने लिए सांस्कृतिक रूप से प्रेरणा का स्रोत स्वीकार करे। उसे धार्मिक दृष्टि देने वाला भारत उसके लिए आज भी कई क्षेत्रों में सहयोगी हो सकता है । भारत की सदिच्छा और वैश्विक शांति के प्रति प्रतिबद्धता को चीन यदि स्वीकार कर ले और इस दिशा में भारत का सहयोगी बनकर चलने का निर्णय ले ले तो दोनों देश विश्व राजनीति के लिए नई दिशा स्थापित करते हुए कई प्रकार के कीर्तिमान स्थापित कर सकते हैं। दोनों देशों को इस प्रकार की अनेक संभावनाओं को खोजना चाहिए और उन पर मिलकर काम करना चाहिए।
इसके लिए चीन को अपने राजनीतिक चिंतन और कार्यशैली में परिवर्तन लाना होगा। इसे परिवर्तन न कह कर यह कहना उचित होगा कि ऐसा करने के लिए चीन को अपनी नीतियों की बलि देनी पड़ेगी अर्थात उसे विस्तारवादी दृष्टिकोण त्यागना पड़ेगा। क्या भारत के साथ चलने के लिए चीन इस प्रकार की सोच को अपना सकता है या इस प्रकार का त्याग करने के लिए तैयार हो सकता है ? यदि नहीं तो यही वह पेंच है जिसे समझकर भारत को चीन के प्रति अपनी नीतियों का निर्धारण करना पड़ेगा।
"तात्कालिक आधार पर सामंजस्य स्थापित करना "और किसी बड़ी ताकत को सुर में सुर मिलाकर चुनौती दे देना "राजनीतिक सूझबूझ " तो हो सकती है , परन्तु राजनीति की दिशा निर्धारित करने वाला एक "निश्चायक बिंदु " नहीं हो सकता। हमारे प्रधानमंत्री की सोच स्पष्ट है कि वह मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाकर और अपने देश के हितों को सर्वोपरि रखकर चीन की भूमि पर गए थे। उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि चीन साफ नीयत से आगे चलने का निर्णय लेता है तो भारत को कोई आपत्ति नहीं होगी। अब यह चीन के ऊपर निर्भर करता है कि वह प्रधानमंत्री श्री मोदी की हाल ही में संपन्न हुई यात्रा के समय जिस हाथ को उनसे मिलाने के लिए आगे बढ़ा रहा था, उससे दूसरे वाला हाथ सचमुच खाली था या उस हाथ में आज भी वही खंजर था जो 1962 में उसने भारत की पीठ में भौंका था।
यदि आज की वैश्विक राजनीति की परिस्थितियों पर विचार करें तो चीन, भारत और रूस- तीनों का निकट आना समय की आवश्यकता है । यह मानवता के हित में भी है। अमेरिका जिस प्रकार से अपनी दादागिरी चलाता रहा है अब उसके पतन का समय आ गया है। दूसरे विश्व युद्ध के समय उसने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर बम गिराकर मानवता के विरुद्ध जो महापाप किया था, उसका परिणाम उसे अपने कर्मों से ही भुगतना है ? यदि चीन, रूस और भारत की यह तिकड़ी दूर तक साथ चलती रही तो शीघ्र ही सारे विश्व की राजनीति का केंद्र एशिया बनेगा। यदि ऐसा होता है तो यह मानवता के हित में ही होगा। क्योंकि तब भारत का मानवतावाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद एकात्ममानववाद की जिस विचारधारा को संसार के लिए परोसने का प्रयास करेगा, वह विचारधारा सारे वैश्विक समाज को शांति का अनुभव करायेगी।
17,125 ,200 वर्ग किलोमीटर में फैला विशालकाय रूस , 95 लाख 97 हजार वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ चीन और 32 लाख 87000 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ भारत अमेरिका सहित किसी भी वैश्विक शक्ति को धराशाई करने में सफल हो सकते हैं। इन तीनों देशों के पास विशाल जनशक्ति भी है। इसके अतिरिक्त तीनों ही एक सैन्य शक्ति के रूप में भी अपना सम्मान पूर्ण स्थान भी रखते हैं। यह बात तो और भी महत्वपूर्ण है कि भारत के चिंतन में यह बात नहीं है कि वह किसी शक्ति को धराशाई करेगा ? यद्यपि आज का भारत अपने राष्ट्रीय हितों के दृष्टिगत सैन्य शक्ति को आधुनिकतम बनाने के लिए कृत संकल्प है, परंतु इसके उपरांत भी वह विस्तारवादी नीतियों को मानवता के विरुद्ध मानता है। वास्तव में यह भारत का प्राचीन राजनीतिक मूल्य है। वेदों सहित ' मनुस्मृति' और उसके बाद की सभी नीतियों या स्मृतियों में भारत के राजनीतिक नेतृत्व के लिए ऋषियों द्वारा प्रतिपादित राजनीतिक शिक्षा के अंतर्गत यह उपदेश दिया गया है कि कोई भी राजा किसी दूसरे राजा के राज्य को हड़पने का प्रयास नहीं करेगा। यदि कहीं कोई दुष्ट राजा शासन करता हुआ पाया जाता है , जिसके कारण उसकी प्रजा दुखी है तो भी केवल राजा को ही उसके पद से हटाया जाएगा और उसके हटाने के उपरांत उसी के परिवार के किसी योग्य व्यक्ति अर्थात प्रजाहितचिंतक को शासन सौंप दिया जाएगा। इसी के चलते रामचंद्र जी ने रावण को हटाकर उसके भाई विभीषण को लंका का राजा बनाया। यह परंपरा महाभारत काल तक भी यथावत जारी रही, जब श्री कृष्ण जी ने कंस को सत्ता से हटाकर उसके स्थान पर उसी के परिवार के लोगों को राजनीतिक सत्ता सौंप दी थी।
राज्य विस्तार का लोभ हमारे चिंतन में नहीं है ,जबकि इस्लाम और ईसाइयत इस प्रकार के लोभ के लिए कुख्यात रहे हैं । इस प्रकार स्पष्ट है कि यदि भारत रूस और चीन के साथ मिलकर अपनी नीतियों को लागू करने में सफल होता है तो विश्व राजनीति से उपनिवेशवाद ,आर्थिक आतंकवाद, बौद्धिक आतंकवाद और जिहादी आतंकवाद जैसी मनोवृतियों के लिए कहीं कोई स्थान नहीं होगा। जब भारत इस प्रकार की नीतियों को लागू करने में सफल होगा और विश्व इस प्रकार के स्वच्छ सामाजिक और राजनीतिक परिवेश को अनुभव कर रहा होगा, वास्तव में भारत तभी विश्व गुरु कहलाने योग्य होगा । इसमें रूस और चीन हमारे लिए कितने उपयोगी या सहयोगी हो सकते हैं ? इस पर अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी. क्योंकि यह प्रश्न अभी उत्तर की खोज में है।

( लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है।)
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