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मन्त्र विज्ञान विमर्श

मन्त्र विज्ञान विमर्श

कमलेश पुण्यार्क 
(शारदीय नवरात्र के शुभ अवसर पर मन्त्र-विज्ञान के सम्बन्ध में किंचित् जानकारी यहाँ दे रहा हूँ। वस्तुतः यह मेरी भावी पुस्तक योजना का अंश मात्र है। अब से पूर्व “बाबाउपद्रवीनाथ का चिट्ठा” नामक पुस्तक में भी इस तरह की अनेक बातें बतलायी गई हैं)
मन्त्र-साधना के प्रति मानव की सहज जिज्ञासा रही है सदा से। किन्तु ऐसा नहीं है कि पुस्तक में पढ़-देखकर या किसी से सुन-जानकर मन्त्र-साधना प्रारम्भ कर दी जाय। हालाँकि ये आवश्यक नहीं है कि अनधिकृत रूप से मन्त्र-साधना शुरु करने पर कोई हानि हो ही जाय, किन्तु लाभ नहीं होगा कुछ भी—इतना तो तय है। अरण्यं रूदनं यथा वाली स्थिति हो जायेगी। और फिर मन्त्र के प्रति अश्रद्धा होगी, निराशा होगी और मन्त्र-विज्ञान बदनाम होगा—ये सबसे बड़ी हानि है।
वर्तमान समय में ऐसा चहुँओर हो रहा है, इस कारण सावधान करना उचित जान पड़ता है। मन्त्र-साधना हेतु योग्य गुरु अत्यावश्यक है और ये कटु सत्य है कि आज के समय में योग्य गुरु का सर्वथा अभाव है।
ध्यान रहे—गुरु बाजार की भीड़ में नहीं मिलते हैं। गुरु किसी मठ या आश्रम में भी नहीं मिलते हैं। गुरु-प्राप्ति हेतु बहुत श्रम करना होता है, बहुत त्याग करना होता है।
किन्तु निराश होने की जरुरत नहीं है। बल्कि आवश्यक है कि सबसे पहले हम साधना का आधार—यानी अपने शरीर को शुद्ध-संस्कारित करें और फिर मन को। क्योंकि “मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।“ शरीर-शुद्धि, विचार-शुद्धि, भाव-शुद्धि, शरीर शून्यता, विचार-शून्यता, भाव-शून्यता—साधना के क्रमिक सोपान कहे गए हैं। इन छः सीढियों की क्रमिक यात्रा हेतु कलिसन्तरणोपनिषद् का महामन्त्र—
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। —
—का यथासम्भव नित्य-निरन्तर जप करना श्रेयस्कर होगा। इसमें किसी गुरुदीक्षा की कोई आवश्यकता नहीं है। हाँ, सौभाग्य से किसी योग्य साधक द्वारा ये आदेश-निर्देश मिल जाय तो सोने में सुगन्ध ।
ध्यातव्य है कि उक्त नाममन्त्र में किसी तरह के आडम्बर या अलंकार (औपचारिकता) की आवश्यकता भी नहीं है। आर्त भाव से पुकार ही पर्याप्त है। शरीर रूपी ट्रैक सही हो जायेगा जिस दिन, उस दिन गुरु स्वयं दर्शन दे देंगे।
प्रसंगवश मन्त्र-विज्ञान के सम्बन्ध में यत्किचित् जानकारी दे दूँ—
शिवसूत्राकार कहते हैं कि चित्त ही मन्त्र है—चित्तं मन्त्रः।
मनन-त्राणधर्मात्मक होने के कारण मन्त्र कहलाता है। मन्त्र की उपासना मन्त्रोपासना है।
कुलार्णवतन्त्र में कहा गया है— मननात्तत्त्वरूपस्य देवस्यामिततेजसः ।
त्रायते सर्वभयतस्तस्मान्मन्त्र इतीरितः।।
चित्तत्व की चेतन रश्मियाँ ही मन्त्र है—मन्त्राश्चिन्मरीचयः।
मनन से, चेतना लाने के कारण, स्वरूप का ज्ञान कराने के कारण भी मन्त्र संज्ञा है—मननात् प्राणाश्चैव मद्रूपस्यावबोधनात्।
मन्त्रभित्युच्यते ब्रह्मन् ! मदधिष्ठानतोऽपि वा।।
उक्त व्याख्याओं के अवलम्ब से अब आगे बढ़ते हैं—ब्रह्म के दो स्वरूप हैं—परब्रह्म और शब्दब्रह्म। शब्दब्रह्म ही आदिमन्त्र है, महामन्त्र है। इसे ही ‘प्रणव’ भी कहते हैं। शब्दब्रह्म—यानी ऊँकार ही परमात्मा का नादात्मक स्वरूप है। शब्दब्रह्म को अतिक्रान्त करके परब्रह्म तक पहुँचना ही साधना का लक्ष्य है। या कहें—शब्दब्रह्म में निष्णातता ही परब्रह्म की प्राप्ति (अनुभूति) है।
ऊँकार भी दो स्वरूपों वाला है—अमात्रक और समात्रक। पुनः दोनों के दो-दो भेद कहे गए हैं। अमात्रक—अप्रमेय और अखण्ड तथा समात्रक—अशुद्ध और शुद्ध स्वरूपों वाला होता है। ध्यातव्य है कि शब्दब्रह्म ही परावाक् है।
परमात्मा की दो शक्तियाँ हैं—चिद्रूपा और अचिद्रूपा। चिद्रूपा शक्ति परमात्मा की ‘समवायिनी शक्ति’ है एवं अचिद्रूपा शक्ति ही ‘बिन्दू’, ‘महामाया’, ‘चिदाकाश’, ‘कुण्डलिनी’, ‘परिग्रह शक्ति’, ‘उपादान शक्ति’ आदि विविध नामों से अभिहित है। ज्ञातव्य है कि उक्त विविध सम्बोधनों से यहाँ भ्रमित होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि साधना-ग्रन्थों में उक्त नामों का अन्यत्र स्थान और प्रयोग की भी चर्चा मिलेगी जिज्ञासुओं को।
परिग्रहशक्ति (बिन्दु ) में क्षोभ (तरंगों का उत्थान) होता है, जो ज्योति और नाद के रूप में प्रकटित होता है। नाद ‘वाक्’ है और ज्योति ‘अर्थ’ ।
महामाया की अवस्थिति माया से ऊपर हैं। महामाया प्रणव की अन्तिम कला है। इस महामाया के गर्भ में ही विन्दु से समना पर्यन्त समस्त मन्त्रावयव स्थित हैं। ध्यातव्य है विन्दु से समना तक सभी अंग ‘षष्ठम्’ से ‘सप्तम्’ तक फैले हुए हैं। महामाया शुद्ध राज्य है।
मायिक जगत् में मन्त्र की मात्रा छः है और मायातीत पद में मन्त्र की मात्रा एक है। इस प्रकार कुल योग हुआ—सात।
मात्रा से मात्राहीन में गमन ही मन्त्रसाधना है। ध्यातव्य है कि मन्त्र-जप के अंगों में विन्दु से उन्मना पर्यन्त अवयवों में मन की मात्रा का सतत् न्यून होते जाना—मात्रांश—भग्नांश ही मन्त्र-साधक का अभीष्ट है।
पुनः ध्यातव्य है कि इन अवयवों में मात्रा-क्षीणता का विशिष्ट क्रम है। चुँकि ये ही मन की भी मात्राएं हैं। मन की जिस मात्रा से मायिक जगत् का अध्यास (मिथ्या आभास) होता है, उसे एक मात्रा माना गया है। यानी उन्मना से पूर्व— समना (बिन्दु से समना पर्यन्त) की मात्रा एक है।
अब बिन्दु से समना पर्यन्त की मात्राओं पर विचार करने पर पाते हैं कि क्रमशः मात्रांश आधा-आधा होते जाता है। यथा—
१. बिन्दु १/२ (आधी मात्रा)
२. अर्धचन्द्र १/४ (चौथाई मात्रा)
३. निरोधिनी १/८
४. नाद १/१६
५. नादान्त १/३२
६. शक्ति १/६४
७. व्यापिनी १/१२८
८. समना १/१२८
९. उन्मना १ (उक्त सबका योग हुआ एक, जिसे उन्मना कहते हैं।)
अब मायाजगत् की छः मात्राओं पर विचार करते हैं—
शब्दब्रह्म—आद्यमन्त्र—महामन्त्र — यानी परमात्मा का नादात्मक स्वरूप — ऊँकार — अ – उ – म
अकार की मात्रा १, उकार की मात्रा २, मकार की मात्रा ३ इनका योग हुआ ६ ।
उक्त छः और एक—मायिक और मायातीत का कुल योग हुआ सात । इन सात की सिद्धि ही मन्त्र-साधक का अभीष्ट है।
अब शाब्दीवृत्तियाँ और मन्त्र पर विचार करते हैं— शब्द की चार वृत्तियाँ है—परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी। वैखरी वाक् शब्द का निम्नतम स्तर है। फलतः यहाँ मन्त्रोपासना अपने यथार्थ स्वरूप में प्रारम्भ हो ही नहीं सकती। अतः इस स्तर पर की गई मन्त्रोपासना यथार्थ मन्त्रोपासना नहीं है, क्योंकि मन्त्र नादात्मक और चिद्रश्मिमय होते है, जबकि वैखरीवाक् के स्तर पर न तो नाद है और न चिद्रश्मिसम्पात् ही। उससे आगे बढ़ने पर ‘मध्यमा वाक्’ के स्तर पर जो मन्त्रोपासना की जाती है, वही वस्तुतः मन्त्रोपासना है। यही कारण है कि मध्यमा भूमि को मन्त्र-भूमि कहा जाता है। स्मृति परिशुद्धि द्वारा सांकर्य-परिहार वैखरी वाक् से मध्यमा वाक् की भूमि में पदार्पण का मार्ग मात्र है।
शाब्दीवृत्तियों के निम्न स्तर से उच्चस्तर की ओर क्रमशः तीनों—मध्यमा>पश्यन्ती>परा — चिद्रश्मिमय और नादात्मक है। इस कारण ये चेतन तत्व के स्तर हैं और ‘वैखरी’ जड़ शब्द का स्तर है। किन्तु ध्यान रहे—जड़ वाक् चेतन वाक् का साधन है। इस प्रकार वैखरीवाक् मध्यमा, पश्यन्ती और परावाक् तक पहुँचने का सेतु है। पुनः स्पष्ट करना उचित प्रतीत हो रहा है कि वैखरीवाक् मन्त्र पदवाच्य नहीं है। फिर भी चुँकि सीधे-सीधे (हठात्) जड़ के द्वारा चेतन तक पहुँचना सम्भव नहीं है, इसलिए वैखरी स्तर के जड़भाव से साधना की शुरुआत तो करनी ही होगी , किन्तु इसे अतिक्रान्त करके चेतनभाव में प्रवेश करने पर ही असली मन्त्रसाधना प्रारम्भ होगी। 
अस्तु।
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