नारी जन्म देती है, संस्कार देती है, समाज को दिशा देती है और फिर भी अक्सर उपेक्षित रह जाती है
लेखक जितेन्द्र कुमार सिन्हा दिव्य रश्मि के उपसम्पादक है |
नारी मानव सभ्यता की मूलधारा है। वह जीवन की जननी है, संस्कारों की वाहिनी है और भावनाओं की अधिष्ठात्री है। समाज का कोई भी पहलू ऐसा नहीं है जो नारी के बिना पूर्ण हो सके। भारतीय साहित्य में नारी को कभी शक्ति, कभी ममता, कभी करुणा, तो कभी विद्रोह की प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया है। नारी का जीवन संघर्ष, संवेदना, त्याग और आत्मसम्मान की कथा है।
महादेवी वर्मा ने कहा था “नारी जीवन की करुणा और संवेदना का समुद्र है, जिसकी गहराइयों का अनुमान लगाना असंभव है।” यह उद्धरण नारी के बहुआयामी स्वरूप की सटीक झलक देता है।
प्राचीन भारत में नारी को ‘गृहलक्ष्मी’, ‘अर्धांगिनी’ और ‘शक्ति’ के रूप में देखा जाता था। ऋग्वैदिक काल में नारी विदुषी और समाज जीवन की अग्रणी थी। गार्गी, मैत्रेयी जैसी विदुषियों ने दर्शन और वेदांत पर गहन मंथन किया। लेकिन समय के साथ नारी की स्थिति में गिरावट आई। मध्यकालीन समाज ने उसे पर्दे और परंपराओं के बंधनों में जकड़ दिया। शिक्षा और स्वतंत्रता उससे छीन ली गई। वह सिर्फ गृहस्थी तक सीमित कर दी गई।
आधुनिक काल में समाज सुधारक राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, दयानंद सरस्वती, महात्मा गांधी ने नारी को पुनः सम्मान दिलाने का प्रयास किया। स्वतंत्रता आंदोलन ने भी नारी को शक्ति और आत्मबल का प्रतीक बनाया।
सुभद्राकुमारी चौहान की कविता “खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी” इस तथ्य का प्रमाण है कि इतिहास में भी नारी केवल गृहस्थी तक सीमित नहीं रही, बल्कि रणभूमि में भी वीरता का परिचय दिया।
भारतीय साहित्य में नारी कभी राधा की भक्ति है, कभी सीता का धैर्य, कभी द्रौपदी का प्रतिशोध और कभी मीरा की करुणा। कालिदास की शकुंतला, भास की उर्वशी, भवभूति की सीता, सभी स्त्रियाँ भारतीय नारी के विविध रूपों को जीवंत करती हैं। संत कवयित्रि अक्कमहादेवी, ललदे, मीराबाई ने अपनी आत्मा को ईश्वर से जोड़ा और भक्ति में नारी के स्वर को मुखर किया। मीरा का प्रसिद्ध कथन था “मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।” इसमें स्त्री की आत्मसमर्पण भावना के साथ-साथ उसका स्वतंत्र निर्णय भी झलकता है। महादेवी वर्मा ने नारी वेदना को स्वर दिया। अमृता प्रीतम ने अपने उपन्यासों और कविताओं में स्त्री मन की गहराइयों को उद्घाटित किया। प्रेमचंद के उपन्यास “गोदान” में होरी की पत्नी धनिया उस भारतीय नारी का प्रतीक है जो संघर्ष और साहस की प्रतिमूर्ति है।
नारी का सबसे बड़ा परिचय उसकी ममता है। वह माँ है, बहन है, पत्नी है, बेटी है। उसका प्रत्येक संबंध जीवन को दिशा देता है। परिवार में वह संस्कारों की प्रथम शिक्षिका होती है। लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ प्रायः नारी को स्वयं की इच्छाओं और आकांक्षाओं से दूर कर देता है। आज की शिक्षित नारी पारिवारिक भूमिकाओं के साथ-साथ आत्मनिर्भरता की ओर भी अग्रसर है। सावित्रीबाई फुले का जीवन इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। उन्होंने माँ और शिक्षिका दोनों की भूमिकाओं को निभाते हुए स्त्री शिक्षा की नींव रखी।
समाज में नारी की भूमिका समय के साथ बदलती रही है। कभी वह पर्दे में कैद रही, कभी रसोई तक सीमित रही, और आज वह राजनीति, विज्ञान, व्यापार, कला, खेल और प्रौद्योगिकी में अपने कौशल का परचम लहरा रही है। आज की नारी केवल सहनशीलता की मूर्ति नहीं, बल्कि आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता की मिसाल है। उसके भीतर विद्रोह भी है, संघर्ष भी है और निर्माण भी। किरण बेदी का उदाहरण यहाँ प्रासंगिक है। उन्होंने पुलिस सेवा में पुरुष प्रधान मानसिकता को चुनौती देते हुए अपनी अलग पहचान बनाई।
आधुनिक समाज में नारी ने प्रगति की है, फिर भी उसके सामने अनेक चुनौतियाँ हैं, दहेज प्रथा, भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा, कार्यस्थल पर शोषण, असमान वेतन, शिक्षा और स्वास्थ्य की असमान उपलब्धता। इन चुनौतियों से जूझते हुए भी नारी अपने अस्तित्व और सम्मान के लिए लड़ रही है। अमृता प्रीतम की कविता की पंक्तियाँ “आज फिर दिल ने एक तमन्ना की, आज फिर दिल को हमने समझाया” स्त्री जीवन के इन निरंतर संघर्षों को सहजता से व्यक्त करती हैं।
साहित्य और समाज दोनों में 20वीं सदी में स्त्री विमर्श एक सशक्त धारा के रूप में उभरा है। पश्चिम में सिमोन द बोउवार की ‘The Second Sex’ ने स्त्री मुक्ति आंदोलन की नींव रखी। भारत में अमृता प्रीतम, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, प्रभा खेतान जैसी लेखिकाओं ने नारी के अधिकार और स्वतंत्रता की वकालत की। प्रभा खेतान ने लिखा था “स्त्री की असली आजादी तभी है जब वह अपनी इच्छाओं को स्वयं परिभाषित कर सके।” यह विचार स्त्री विमर्श का मूल मंत्र है।
आज की नारी शिक्षा, रोजगार, राजनीति और प्रौद्योगिकी में नई ऊँचाइयाँ छू रही है। अंतरिक्ष यात्री कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स, मिसाइल वूमन डॉ. टेसी थॉमस, राजनीति में इंदिरा गांधी और निर्मला सीतारमण, खेल में सानिया मिर्जा, साइना नेहवाल, मिताली राज, यह सभी नारी की शक्ति और क्षमता की प्रतीक हैं। कल्पना चावला के शब्द थे “मैं अंतरिक्ष तक पहुँची क्योंकि मैंने अपने सपनों को पंख दिए।” यह पंक्ति हर नारी को प्रेरित करती है। सरकार भी नारी सशक्तिकरण के लिए ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’, ‘उज्ज्वला योजना’, ‘आधारभूत स्वास्थ्य कार्यक्रम’ जैसे कदम उठा रही हैं।
नारी भारतीय संस्कृति और कला की आत्मा है। लोकगीत, नृत्य, चित्रकला, शिल्प, हर क्षेत्र में उसकी संवेदना और कल्पना झलकती है। त्योहारों में स्त्रियों की भूमिका विशेष होती है करवा चौथ, तीज, छठ, नवरात्रि, यह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि नारी की शक्ति और आस्था का उत्सव हैं। भारतीय लोकगीतों में स्त्री की पीड़ा और आनंद दोनों अभिव्यक्त होता है। “बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए” जैसे गीत नारी की भावनाओं को गहराई से प्रकट करती हैं।
भविष्य का समाज तभी संतुलित और न्यायपूर्ण होगा जब नारी और पुरुष समानता के साथ जीवन के हर क्षेत्र में सहभागी होंगे। नारी शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता के साथ समाज का नेतृत्व कर सकती है। वह न केवल घर की ज्योति है, बल्कि भविष्य का दीपक भी। डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का कथन है “अगर आप तेजी से आगे बढ़ते हुए भारत का सपना देख रहे हैं, तो उसकी पहली शर्त है कि भारत की स्त्रियाँ शिक्षित और सशक्त हों।” यह कथन नारी के महत्व को स्पष्ट करता है।
नारी जीवन का अर्थ है त्याग और संघर्ष से निर्मित सौंदर्य। वह जन्म देती है, संस्कार देती है, समाज को दिशा देती है और फिर भी अक्सर उपेक्षित रह जाती है। साहित्य, संस्कृति और समाज ने नारी को कभी देवी, कभी शक्ति, कभी करुणा, कभी विद्रोह के रूप में देखा है। आज आवश्यकता है कि नारी को केवल प्रतीक न माना जाए, बल्कि उसे समान अधिकार, अवसर और सम्मान दिया जाए। नारी जीवन एक महागाथा है सृजन, संवेदना, संघर्ष और आत्मबल की गाथा। वही गाथा समाज के लिए प्रकाश-पुंज है और साहित्य के लिए अमर प्रेरणा।
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