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"जैसे फिर कभी होना ही नहीं…"

"जैसे फिर कभी होना ही नहीं…"

पंकज शर्मा
जब पीड़ा ने आत्मा के आकाश पर
अपने अनाम मेघ फैलाए,
तब चेतना के नक्षत्र भी
धुंध से ढक गए।
श्वास—
मानो अनादि काल के शून्य में
ठिठककर खड़ी रह गई हो,
और समय—
अपनी गति का रथ रोककर
मौन का दार्शनिक व्याख्यान करने लगा।


आँखों के भीतर,
निस्सीम ज्वार की तरंगें उठीं,
परंतु शब्द—
ब्रह्माण्ड की उदास गुफाओं में
अप्रकट रह गए।
मन लगा जैसे यह पीड़ा
अनन्त का अंतिम सूत्र है—
जैसे फिर कभी होना ही नहीं…!!


किन्तु, अगली ही धड़कन में
प्रकट हुआ कि वेदना
केवल बिखराव नहीं,
वह तो आत्मा के गहन गर्भ में
छिपी हुई सृष्टि की चिंगारी है।
मौन के अन्धकार से ही
प्रकाश का उद्भव होता है;
विनाश की निस्तब्धता से ही
नवजीवन की कोंपलें फूटती हैं।


अतः यह दुःख
अस्तित्व की संध्या नहीं,
बल्कि किसी अदृश्य प्रभात की
अपूर्व प्रतीक्षा है।
पीड़ा यदि शाश्वत है,
तो शांति भी शाश्वत है;
और जीवन—
इन्हीं दोनों के बीच
सदैव अपनी धुरी पर घूमता है।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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