पाॅंचवे पन का धीश
अपने आप में जीवन लिए पैठा हूॅं ,जीवन के कड़वे घूॅंट पिए बैठा हूॅं ।
जब आ गया मैं ऐसे ही मोड़ पर ,
मन में अब अहम लिए ही बैठा हूॅं ।।
हृदय में तेरे मैं तो ईश बना बैठा हूॅं ,
तन में तेरे मैं तो शीश बना बैठा हूॅं ।
ध्यान से मुझे देख लो तुम मानव ,
मैं तेरे लिए तो आशीष बना बैठा हूॅं ।।
जीवन दिया ही है जब प्रकृति ने ,
दिए गए जीवन अब जिए बैठा हूॅं ।
जीने को जी रहा हूॅं जिंदगी मगर ,
जीने की और आस लिए बैठा हूॅं ।।
निज नजरों में मैं बीस बना बैठा हूॅं ,
सबकी नजरों में तीस बना बैठा हूॅं ।
अंतर्मन में झाॅंककर देख तू मानव ,
मुख तेरे दंत बत्तीस बना बैठा हूॅं ।।
पाॅंचवें पन का मैं धीश बना बैठा हूॅं ,
यमराज का अब नीस बना बैठा हूॅं ।
गुजर चुका हूॅं निज कर्म मार्ग पर ,
किंतु अधमों हेतु टीस बना बैठा हूॅं ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार
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