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आधुनिक राजनीति का 'चतुरानन': कामी, नाकामी, चतुरी और मनमौजी

आधुनिक राजनीति का 'चतुरानन': कामी, नाकामी, चतुरी और मनमौजी

सत्येन्द्र कुमार पाठक
आज की राजनीति में 'धर्म' और 'नीति' के पुराने नियम ध्वस्त हो गए हैं। ऐसा लगता है कि कुछ नए ही देवताओं ने यहाँ शासन संभाल लिया है। ये हैं कामी, नाकामी, चतुरी और मनमौजी। इनकी दोस्ती और कारनामे देखकर धर्म भी बेचैन हो गया है। कामी, जो हर बात पर क्रोधित होकर अपने विरोधियों पर आग उगलता है, वही शांति और सद्भाव की बातें करता है। वह क्रोध के बीज बोकर शांति की फसल काटना चाहता है। वहीं नाकामी, जो घृणा की राजनीति करता है, समाज को बाँटने के लिए हर संभव प्रयास करता है, पर जब प्रेम और सद्भाव की बात आती है, तो वह मंच पर प्रेम की फसल काटने के सपने दिखाता है। इनसे भी बढ़कर है चतुरी, जो अपनी कूटनीति से चारों ओर शत्रुता फैलाता है, पर उसका एकमात्र लक्ष्य होता है कि सभी लोग उसके मित्र बन जाएँ। और मनमौजी? वह सबकी तरफ गालियाँ फेंकता है, अपशब्दों का प्रयोग करता है और फिर उम्मीद करता है कि आकाश से उसके ऊपर शुभ आशीर्वादों की बारिश होगी। इन चारों ने मिलकर धर्म, नैतिकता और मानवीय मूल्यों का मज़ाक बना दिया है। यही कारण है कि धर्म के समर्थकों को राजनीति में इन अधर्मी मित्रों को सबक सिखाने के लिए आगे आना पड़ा।
धर्म ने कहा, "बोए पेड़ बबूल का आम कहाँ ते होय।" यह कर्म का सबसे सीधा और सरल सिद्धांत है। लेकिन आज की राजनीति के ये चार महाभूत इस सिद्धांत को सिरे से खारिज करते हैं। वे मानते हैं कि वे कुछ भी कर सकते हैं, और उसका परिणाम उनकी इच्छा के अनुसार होगा। कामी क्रोध का विष बोता है और सोचता है कि समाज में शांति आएगी। नाकामी घृणा की खाई खोदता है और उम्मीद करता है कि उस पर प्रेम का पुल बन जाएगा।
इनका यह व्यवहार "कर्म प्रधान बिस्व करी राखा। जो जस करई सो तस फल चाखा" के सिद्धांत का सीधा उल्लंघन है। ये नेता जनता को सिर्फ इसलिए मूर्ख समझते हैं, क्योंकि वे खुद अपने कर्मों के परिणामों से बेखबर रहते हैं। जब जनता ने अपने मतदान से उन्हें सबक सिखाया, तो उन्हें यह बात समझ आई कि कर्म का फल अवश्य मिलता है, भले ही वह देर से मिले। इस तरह जनता ने इन नेताओं को न केवल राजनीति से बहिष्कृत किया, बल्कि यह भी दिखाया कि कर्म का सिद्धांत सिर्फ धार्मिक ग्रंथों में नहीं, बल्कि वास्तविक जीवन में भी लागू होता है।
आज की राजनीति में हमें कुछ नए ही जानवर देखने को मिलते हैं। यहाँ नेताओं के भाषण कौवों की तरह काँव-काँव करते हैं, जिनमें सिर्फ शोर होता है, कोई सार नहीं। ये भाषण जनता को मुद्दों से भटकाने और ध्यान हटाने के लिए होते हैं। ये नेता गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं, जो आज एक बात कहते हैं और कल दूसरी। इनका कोई स्थायी सिद्धांत या विचार नहीं होता, केवल सत्ता का लालच होता है। और अंत में, ये गिद्धों की तरह जनता को नोंचते हैं, महंगाई, बेरोजगारी और गरीबी के नाम पर उनका शोषण करते हैं। इस नए राजनीतिक प्राणीशास्त्र में मुद्दा राष्ट्रवाद या विकासवाद का नहीं, बल्कि जातिवाद, परिवारवाद और क्षेत्रवाद का हो गया है। इन नेताओं के लिए देश का विकास एक गौण विषय है, उनका मुख्य उद्देश्य अपनी जाति, परिवार और क्षेत्र का विस्तार करना है। वे जनता को एकजुट करने की बजाय बाँटने में व्यस्त रहते हैं।
अहंकार एक ऐसी बेड़ी है जो व्यक्ति को मानसिक रूप से गुलाम बना देती है। आलेख के अनुसार, "ज्यादातर संघर्ष सम्मान सुख के लिये ही होते हैं।" हम दूसरों से सम्मान पाना चाहते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि सम्मान विनम्रता और अच्छे व्यवहार से मिलता है, अहंकार से नहीं। जब कोई नेता अहंकारी हो जाता है, तो वह दूसरों की भावनाओं, भाव-भंगिमाओं और व्यवहार पर संदेह करता है। वह इस हद तक दूसरों पर निर्भर हो जाता है कि उसका मानसिक सुख और शांति दूसरों के व्यवहार पर निर्भर हो जाते हैं। लेकिन यह मूर्खता है। हम अहंकार का बीज बोकर प्रेम और सम्मान की फसल नहीं काट सकते। यदि हम चाहते हैं कि हमें शांति और सम्मान मिले, तो हमें भी शांतिपूर्ण और सम्मानजनक व्यवहार करना होगा। श्रीकृष्ण कहते हैं, "यह जीवात्मा खुद ही अपना शत्रु है और खुद ही अपना मित्र है।" यदि हम अहंकार के साथ व्यवहार करते हैं, तो हम खुद के शत्रु बन जाते हैं।
आलेख एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण विचार प्रस्तुत करता है: "स्वार्थी होना बुरा नहीं मगर सच्चा स्वार्थी होना चाहिए।" मूर्ख स्वार्थी वह है जो केवल अपने हित के लिए काम करता है और दूसरों को नुकसान पहुँचाता है। वह यह नहीं समझता कि उसका नुकसान अंततः उसी को प्रभावित करेगा। सच्चा स्वार्थी वह है जो समझता है कि उसका सुख दूसरों के सुख से जुड़ा हुआ है। एक सच्चा स्वार्थी व्यक्ति दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करता है क्योंकि वह जानता है कि इससे उसे भी मानसिक शांति और सुख मिलेगा। वह धैर्यवान, सहिष्णु और बुद्धिमान होता है। वह दूसरों को बदलने की कोशिश नहीं करता, बल्कि अपनी जिम्मेदारी खुद लेता है। ऐसा व्यक्ति स्वतंत्र होता है और उसे परिणामों का कोई भय नहीं होता।
श्रीकृष्ण ने अपने भक्त का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण बताया है, "जो न दूसरों को उद्विग्न करता है, न दूसरों से उद्विग्न होता है।" इसका मतलब यह है कि एक शांत और संतुलित व्यक्ति दूसरों को परेशान नहीं करता और न ही दूसरों के व्यवहार से परेशान होता है। यदि कोई व्यक्ति किसी के स्वभाव से उद्विग्न होता है, तो उसकी चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि "उद्विग्न स्वयं, उद्वेगजनक है।" यह सिद्धांत सभी पर लागू होता है। क्रोधित व्यक्ति स्वयं क्रोध का कारण होता है। भयभीत व्यक्ति स्वयं भय का कारण होता है। भय और क्रोध बाहर से नहीं, बल्कि भीतर से आते हैं। इसलिए, व्यक्ति को खुद को देखना चाहिए और यह पता लगाना चाहिए कि उसे क्या अशांत करता है। जो लोग अपनी अशांति का कारण दूसरों को मानते हैं, वे भटकते रहते हैं। लेकिन जो अपनी अशांति का कारण स्वयं में देखते हैं, वे दूसरों की मदद करने में सक्षम हो जाते हैं। संसारी बनाम साधक: समस्या का मूल कारण "जो किसी व्यक्ति-घटना-परिस्थिति को समस्या का कारण माने वह संसारी, जो स्वयं को कारण जाने वह साधक।" आज की राजनीति में अधिकांश नेता और जनता संसारी हैं। वे महंगाई, बेरोजगारी और अन्य समस्याओं के लिए दूसरों को दोष देते हैं। वे यह नहीं समझते कि समस्या का कारण उनके अपने कर्म, व्यवहार और सोच में छिपा है।साधक वह है जो अपनी परेशानी का कारण स्वयं को मानता है। वह इसे एक समस्या नहीं, बल्कि साधना की आवश्यकता के रूप में देखता है। यदि हम बिना कुछ किए आराम से रहना चाहते हैं, तो हम ऐसा बीज बो रहे हैं जिसकी फसल हमारा सुख-आराम सब छीन लेगी। हमें सच्चा स्वार्थी बनकर अपने सुख के लिए अपनी जिम्मेदारी खुद लेनी होगी। यही वह मार्ग है जो हमें शांति और स्वतंत्रता की ओर ले जाता है।
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