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"लघु आत्मा और विराट सत्ता"

"लघु आत्मा और विराट सत्ता"

पंकज शर्मा
आज पुनः तुम मेरे सम्मुख प्रकट हुए—
हे विराट, हे अनन्त!
तुम्हारी ऊँचाई को नापने का प्रयास किया मैंने,
पर मेरी दृष्टि नीलाम्बर में विलीन हो गई,
और मेरी ग्रीवा थककर
अपनी सीमा का स्मरण कराने लगी।


तुम्हारे वक्ष पर उकेरी गई शिलाएँ
मानो ब्रह्मा की अंकित लिपि हों—
अक्षर जिन्हें कोई भी मस्तिष्क
पूर्णतया पढ़ नहीं सकता।
मैं उन्हें केवल
अचेतन श्रद्धा से निहारता रहा।


सूर्य ने जब अपनी धवल किरणों से
तुम्हारे हिमाच्छादित शिखर को आलोकित किया,
तब तुम ज्योतिर्मय ब्रह्म के समान
समस्त दिशाओं में प्रकट हुए।
उस क्षण मैं समझ गया—
मेरा अस्तित्व केवल छाया है,
तुम्हारे प्रकाश का अंश।


मैंने स्पर्श करना चाहा तुम्हें,
पर मेरी हथेली
मात्र वायुस्पंदन रह गई।
क्षणभंगुर कैसे छू सकता है
अनन्त को?
अपरिमेय को मापने की इच्छा ही
मेरी अविवेकता का प्रमाण थी।


लज्जा से झुका मैं,
अपने ही तुच्छ प्रश्नों में डूबा।
क्या लघु आत्मा कर सकती है
विराट सत्ता का मूल्यांकन?
क्या सीमित मन दे सकता है
अनन्त का प्रमाण?
क्या समयबद्ध जीव कर सकता है
कालातीत का निर्णय?


तभी—
तुम्हारे शीतल करुणा-कण
मेरे ललाट पर आ गिरे,
मानो स्वयं ब्रह्म
मेरे अज्ञान को सहलाता हो।
वह हिमकण तुम्हारा संकेत था:
"मैं पहुँचता हूँ वहाँ भी
जहाँ तुम पहुँच नहीं सकते।"


और तब
मेरा हृदय नतमस्तक हो गया।
मैंने जान लिया—
मेरा प्रयत्न व्यर्थ नहीं था,
क्योंकि मेरी सीमाओं के पार
तुम्हारी करुणा स्वयं उतर आती है।


हे विराट!
तुम्हारे बिना मेरा अस्तित्व
शून्य है।
पर तुम्हारे स्पर्श सेयह शून्य भी पूर्णता का अनुभव करता है।
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