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आचार्य विनोबा भावे: जीवन, दर्शन और योगदान

आचार्य विनोबा भावे: जीवन, दर्शन और योगदान

सत्येन्द्र कुमार पाठक
आचार्य विनोबा भावे, जिनका मूल नाम विनायक नरहरि भावे था, भारत के एक ऐसे महान व्यक्तित्व थे जिन्होंने अपना पूरा जीवन मानवता और आध्यात्मिकता के लिए समर्पित कर दिया। उनका जन्म 11 सितंबर 1895 को महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र के गागोदा गाँव में हुआ था और 15 नवंबर 1982 को वर्धा के पवनार आश्रम में उनका निधन हुआ। उन्हें महात्मा गांधी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी और भारत का राष्ट्रीय अध्यापक माना जाता है। विनोबा भावे का जीवन उनके माता-पिता के संस्कारों, उनकी गहन आध्यात्मिक जिज्ञासा और सामाजिक परिवर्तन की उनकी अटूट इच्छा का एक सुंदर था । विनोबा का बचपन उनके माता-पिता के अलग-अलग किंतु पूरक संस्कारों से पोषित हुआ। उनके पिता, नरहरि भावे, एक गणित प्रेमी और वैज्ञानिक सूझ-बूझ वाले व्यक्ति थे। वे भारत को रसायन विज्ञान में आत्मनिर्भर बनाने का सपना देखते थे। उनसे विनोबा को तर्कशक्ति, विज्ञान के प्रति अनुराग और पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सोचने की कला मिली। लेकिन उनके जीवन पर सबसे गहरा प्रभाव उनकी माता रुक्मिणी बाई का था। वे एक विदुषी और उदार हृदय वाली महिला थीं, जो हर समय भक्ति भाव में लीन रहती थीं। विनोबा को आध्यात्मिकता, प्राणी मात्र के कल्याण की भावना, सर्वधर्म समभाव और त्याग के संस्कार उन्हीं से मिले। उनकी माता उन्हें बचपन से ही संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, नामदेव और शंकराचार्य की कहानियाँ सुनाती थीं। वे प्रतिदिन समर्थ गुरु रामदास की पुस्तक ‘दास बोध’ का अध्ययन करती थीं और सोने से पहले बालक विनायक को रामायण और महाभारत की कहानियाँ सुनाती थीं। यह उनकी माता का ही प्रभाव था कि विनोबा के मन में किशोरावस्था से ही अपरिग्रह और अस्तेय (त्याग और चोरी न करने का भाव) की भावना पनप गई। एक घटना उनके और उनकी माँ के गहरे रिश्ते को दर्शाती है। जब विनोबा को भूख लगती और वह भोजन माँगते, तो उनकी माँ कहतीं, "पहले तुलसी को पानी पिलाओ।" इस छोटे से नियम के पीछे उनकी माँ का उद्देश्य उन्हें अनुशासन और प्रकृति के प्रति सम्मान सिखाना था। विनोबा की माँ उन्हें बचपन में ही यह बताती थीं कि गृहस्थ जीवन का पालन करने से जहाँ पितरों को मुक्ति मिलती है, वहीं ब्रह्मचर्य का पालन करने से 41 पीढ़ियों का उद्धार होता है। इस बात ने उनके मन में संन्यास और वैराग्य की गहरी प्रेरणा जगाई।
एक और दिलचस्प प्रसंग है जिसमें उनके पिता नरहरि भावे, जो गणित में प्रवीण थे, अपनी पत्नी को एक लाख चावल के दाने गिनते देखकर सलाह देते हैं कि गिनती करने के बजाय वजन कर लें। तब विनोबा अपनी माँ को समझाते हैं कि दान के लिए चावल गिनना सिर्फ गिनती नहीं, बल्कि ईश्वर का नाम लेने और मन को उससे जोड़ने की एक साधना है। यह घटना दर्शाती है कि विनोबा के लिए आध्यात्मिकता तर्क और गणित से कहीं परे थी।
विनोबा का मन हमेशा से सत्य की खोज में लगा हुआ था। 1915 में, हाई स्कूल की परीक्षा पास करने के बाद, उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा देने के लिए मुंबई जाने का फैसला किया। लेकिन उनके मन में एक गहरा द्वंद्व चल रहा था—क्या कॉलेज की डिग्रियाँ ही उनके जीवन का लक्ष्य हैं? इस प्रश्न का उत्तर उन्हें मुंबई जाने वाली ट्रेन में मिला। जैसे ही गाड़ी सूरत पहुँची, उन्होंने परीक्षा छोड़ दी और एक दूसरी ट्रेन में बैठ गए जो पूर्व की ओर जा रही थी। उन्हें लगा कि हिमालय उन्हें बुला रहा है। वह ब्रह्म की खोज में घर से निकल पड़े।
उनकी यह यात्रा उन्हें काशी तक ले आई, जहाँ वे एक गुरु की तलाश में भटक रहे थे। काशी में एक शास्त्रार्थ के दौरान उन्होंने विद्वानों के बीच चल रही बहस में भाग लिया और अपनी विलक्षण तर्कशक्ति से सबको चौंका दिया। हालाँकि, उन्हें वहाँ भी अपनी मंजिल नहीं मिली। इसी दौरान, 4 फरवरी 1916 को, वे अखबारों के माध्यम से महात्मा गांधी के बारे में जाने। गांधी ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के एक सम्मेलन में राजाओं और सामंतों से राष्ट्र निर्माण के लिए अपने धन का उपयोग करने की अपील की थी। विनोबा को इस व्यक्ति में हिमालय जैसी शांति और बंगाल की क्रांति की धधक दोनों दिखाई दीं। उन्हें लगा कि जिस राह की उन्हें तलाश थी, वह मिल गई है। उन्होंने तुरंत गांधी जी को पत्र लिखा और उनके आमंत्रण पर अहमदाबाद के कोचर्ब आश्रम चले गए।
7 जून 1916 को विनोबा और गांधी जी की पहली मुलाकात हुई। गांधी जी विनोबा से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने कहा, "बाकी लोग तो इस आश्रम से कुछ लेने के लिए आते हैं, एक यही है जो हमें कुछ देने के लिए आया है।" विनोबा ने अपनी आध्यात्मिक साधना और रचनात्मक कार्य से इस बात को सच साबित कर दिया। वे गांधी के विचारों को आत्मसात करते हुए भी अपनी एक स्वतंत्र सोच रखते थे, जिसे गांधी ने भी सराहा।
गांधी जी के साथ जुड़कर विनोबा ने खुद को पूरी तरह आश्रम के जीवन में समर्पित कर दिया। वे अध्ययन, अध्यापन, कताई और खेती जैसे हर काम में सक्रिय रहे। उनका अनुशासन और कर्तव्यपरायणता देखकर गांधी जी ने उन्हें 1923 में वर्धा में एक नया आश्रम स्थापित करने की जिम्मेदारी सौंपी। यहीं से विनोबा ने 'महाराष्ट्र धर्म' नामक मासिक पत्रिका का संपादन शुरू किया, जिसमें उन्होंने उपनिषदों और महाराष्ट्र के संतों पर लिखा। इस पत्रिका ने उन्हें एक आध्यात्मिक विचारक के रूप में पहचान दिलाई। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब अंग्रेजों ने भारत को जबरन युद्ध में शामिल किया, तो गांधी जी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू किया। 17 अक्टूबर 1940 को उन्होंने विनोबा भावे को प्रथम सत्याग्रही के रूप में चुना। विनोबा ने इस सत्याग्रह के दौरान स्पष्ट किया कि वे अहिंसा में पूरी तरह विश्वास करते हैं और युद्ध को अमानवीय मानते हैं। उन्होंने लोगों से युद्ध में किसी भी प्रकार की सहायता न करने का अनुरोध किया। अपने भाषणों में वे बताते थे कि युद्ध का समाधान केवल रचनात्मक कार्यक्रमों से ही हो सकता है।
भारत की स्वतंत्रता के बाद, विनोबा भावे ने समाज के गरीबों और भूमिहीनों के लिए एक नया आंदोलन शुरू किया, जिसे भूदान आंदोलन के नाम से जाना जाता है। 1951 में शुरू हुए इस स्वैच्छिक भूमि सुधार आंदोलन का उद्देश्य भूमि का पुनर्वितरण सरकारी कानूनों से नहीं, बल्कि लोगों के हृदय परिवर्तन से करना था। उन्होंने हजारों मील पैदल चलकर लोगों से भूमि दान करने की अपील की। इस आंदोलन के माध्यम से उन्होंने लाखों एकड़ भूमि गरीबों और भूमिहीनों के बीच वितरित की। भूदान आंदोलन के साथ-साथ, उन्होंने सर्वोदय समाज की भी स्थापना की। यह रचनात्मक कार्यकर्ताओं का एक अखिल भारतीय संघ था, जिसका उद्देश्य अहिंसक तरीकों से सामाजिक परिवर्तन लाना था। विनोबा मानते थे कि सच्चे समाजवाद और समानता के लिए ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को अपनाना जरूरी है, जहाँ धनी लोग अपनी संपत्ति को गरीबों के लिए ट्रस्ट के रूप में देखें। विनोबा भावे ने कार्ल मार्क्स के विचारों पर भी चिंतन किया। उन्होंने मार्क्स को एक ऐसा विचारक माना जिसके मन में गरीबों के लिए सच्ची सहानुभूति थी, हालांकि वे मार्क्स के हिंसक तरीकों से असहमत थे। विनोबा का मानना था कि कम्युनिस्टों का उदय धनी लोगों के कारण हुआ है और उनका आतंक पुलिस कार्रवाई से नहीं, बल्कि सहानुभूति और तर्क से समाप्त किया जा सकता है। वे कई भाषाओं के ज्ञाता थे और देवनागरी लिपि को विश्व लिपि के रूप में देखना चाहते थे। उनका मानना था कि देवनागरी भारत के लिए एक संपर्क लिपि बन सकती है। इसी विचार से प्रेरित होकर बाद में नागरी लिपि संगम की स्थापना की गई। विनोबा भावे की सबसे प्रसिद्ध कृति ‘गीताई’ है। जब उनकी माता ने उनसे गीता का मराठी में अनुवाद करने की इच्छा व्यक्त की, तो उन्होंने यह काम अपने हाथ में लिया। उन्होंने गीता का इतना सरल और सहज अनुवाद किया कि यह महाराष्ट्र के हर घर में माताओं और बहनों के कंठ का हार बन गई। यह कृति उनकी माता के प्रति उनके प्रेम और उनके गहन आध्यात्मिक ज्ञान का प्रतीक है। इसके अलावा उनकी कुछ अन्य प्रमुख कृतियाँ हैं: गीताई-चिंतनिका, गीता प्रवचने, जीवनदृष्टी, विचार पोथी और साम्यसूत्र वृत्ति है । विनोबा भावे का जीवन त्याग, सेवा और आध्यात्मिक साधना का एक अनुपम उदाहरण था। वे न केवल एक स्वतंत्रता सेनानी थे, बल्कि एक दूरदर्शी सामाजिक कार्यकर्ता और दार्शनिक भी थे। उन्होंने जीवनपर्यंत गांधी जी के आदर्शों पर चलते हुए समाज को एक नई दिशा दी। उनका योगदान केवल स्वतंत्रता संग्राम तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने भूदान आंदोलन जैसे रचनात्मक कार्यों के माध्यम से लाखों लोगों के जीवन में बदलाव लाया। उनकी विरासत हमें यह सिखाती है कि सच्चा परिवर्तन केवल बाहरी संघर्ष से नहीं, बल्कि आंतरिक शुद्धि और हृदय परिवर्तन से ही संभव है।

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