जिउतिया: लोक पर्व, लोक संस्कृति और पुत्र-पुत्री का अटूट बंधन
सत्येन्द्र कुमार पाठक
भारतीय संस्कृति में पर्व केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि लोक संस्कृति का जीवंत प्रतिबिंब हैं। ये पर्व जनमानस की आस्था, परंपरा और जीवनशैली को दर्शाते हैं। ऐसा ही एक महत्वपूर्ण पर्व है, जिउतिया। यह पर्व न केवल एक अनुष्ठान है, बल्कि इक्ष्वाकु वंशीय राजा जीमूतवाहन के परोपकारी कृतित्व और उनके जन-कल्याणकारी व्यक्तित्व की अमर गाथा है । पितृपक्ष में अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाने वाला यह पर्व, विशेष रूप से माताओं द्वारा अपने पुत्रों और पुत्रियों की दीर्घायु, सुख-समृद्धि और सुरक्षा के लिए किया जाता है। जिउतिया या जीमूतवाहन व्रत के नाम से प्रसिद्ध इस पर्व में माताएं कठोर निर्जला और निराहार व्रत रखती हैं। यह व्रत उनके अटूट प्रेम, त्याग और समर्पण का प्रतीक है। इस पर्व की विशिष्टता इसकी लोक परंपराओं में निहित है। व्रत का आरंभ और अंत कुछ विशेष सामग्रियों और अनुष्ठानों के साथ होता है। व्रत शुरू करने से पहले, महिलाएं सतापूतिया सब्जी, नोनी का साग, मडुआ के आटे की रोटी, खीरा, चना, और गाय के दूध-दही का प्रसाद तैयार करती हैं। इन सभी सामग्रियों को सबसे पहले चील्ह (चील) और श्रृंगाल (गीदड़) को अर्पित किया जाता है, जो लोककथाओं में राजा जीमूतवाहन के सहयोगी माने जाते हैं। यह परंपरा प्रकृति के प्रति सम्मान और सभी जीवों के कल्याण की भावना को दर्शाती है। व्रत के पारण (पारण) का भी अपना विशेष महत्व है। पारण के समय माताएं अपने पुत्र के अनुसार खीरे के बीज और चने के दाने गिनकर का कच्चे दूध के साथ निगल कर गाय का दूध ग्रहण करती हैं। यह सब करने के बाद ही वे गोशाला या पूजा स्थल पर जाकर अपना व्रत समाप्त करती हैं। यह अनूठा तरीका न केवल परंपराओं को जीवित रखता है, बल्कि इसे एक व्यक्तिगत और भावनात्मक स्पर्श भी देता है। यह पर्व केवल पुत्रों के लिए ही नहीं, बल्कि पुत्रियों के लिए भी किया जाता है, जो समाज में लिंग समानता के संदेश को पुष्ट करता है। जिउतिया पर्व यह दर्शाता है कि लोक संस्कृति किस प्रकार से अपनी प्राचीन कथाओं और परंपराओं के माध्यम से आज भी लोगों के जीवन में गहराई से समाई हुई है। यह पर्व राजा जीमूतवाहन के बलिदान और परोपकार की याद दिलाता है, जिन्होंने एक नाग के जीवन को बचाने के लिए अपना शरीर बलिदान कर दिया था। उनका यह कृतित्व आज भी लोक मानस में जीवित है और जिउतिया पर्व के माध्यम से हर साल नई पीढ़ी तक पहुँचता है।
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