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"रावण, तू मरा हुआ था!"

"रावण, तू मरा हुआ था!"

(चरित्र-चित्रणात्मक कविता)
✍️ डॉ रवि शंकर मिश्र "राकेश"
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रावण, तू ज्ञान का भंडार,
चारों वेद तुझको थे साकार।
तू पंडित था, तू ज्ञानी था,
पर भीतर तेरे अभिमानी था।


शिवभक्त था तू, पर क्रूर भी,
शक्ति के नशे में चूर भी।
सीता हरण कर तूने दिखाया,
कि काम वासना ने तुझे गिराया।


अंगद आया, दिया तुझे ज्ञान,
पर तुझमें न था कोई गूंजता कान।
तेरी दृष्टि बस युद्ध पे थी,
असत्य की जिद पे अड़ती रही।


अंगद बोला, सुन रे रावण,
तेरी माया अब नहीं बचावन।
जीवित होकर भी तू मरा है,
सच्चाई से तू बहुत डरा है।


कामवासना में डूबा तन,
कंजूस बना, था संकीर्ण मन।
अति दरिद्र तुझे कहा गया,
क्योंकि धन के साथ विवेक गया।


तू विमूढ़, तू अहंकारी,
कभी न सुनी बात सतकारी।
क्रोध में तेरा मन जला,
शिवभक्ति तुझमें भी अधूरा चला।


तू रोगी था, भीतर से खोटा,
अति बूढ़ा, पर विवेक से छोटा।
पाप की कमाई से जो पला,
उस घर का दीपक भी बुझ चला।


तेरा मन विष्णु से विमुख,
बोला वेदों का विरोधी मुख।
संतों से तुझे चिढ़ थी भारी,
तेरी आत्मा थी अंधकारी।


अंगद ने जब ये सब कहा,
रावण हँसा, पर मन डरा।
उसका अंत समीप था आया,
पर घमंड ने न सत्य अपनाया।


राम ने जब धनुष उठाया,
रावण को उसका पथ दिखाया।
गिरा दशानन, टूटी शान,
खो बैठा सारा अभिमान।
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