भारत का शासन, संविधान और धर्मगुरुओं की उपेक्षा : अंग्रेज़ी कूटनीति का परिणाम
भारत वह भूमि है जहाँ धर्म ही जीवन का आधार है। यहाँ धर्म का अर्थ केवल संप्रदाय या पूजा-पद्धति नहीं, बल्कि जीवन की संपूर्ण व्यवस्था है। ऋग्वेद से लेकर गीता तक, मनुस्मृति से लेकर आचार्य शंकर तक – सबने यह उद्घोष किया कि धर्म ही राष्ट्र की रक्षा करता है।
किन्तु आज यह विडम्बना है कि भारत का संविधान और शासन, अपनी ही आध्यात्मिक परंपरा से दूर है। साधु-संत, शंकराचार्य और धर्माचार्य जिन्हें समाज का मार्गदर्शक होना चाहिए था, उन्हें हाशिए पर धकेल दिया गया। दूसरी ओर, यूरोप और अमेरिका ने अपने धार्मिक नेताओं को सर्वोच्च सम्मान दिया। रोमन कैथोलिक परंपरा में पॉप न केवल धार्मिक, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक रूप से भी अत्यंत प्रभावशाली है।
भारत और भारतीयों का दुर्भाग्य यह है कि जहाँ हमें अपने शंकराचार्य को सर्वोच्च स्थान देना चाहिए था, वहाँ उन्हें केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित कर दिया गया। संविधान और शासन में उनकी कोई भूमिका नहीं है। यही कारण है कि भारत अपने वास्तविक विकास से वंचित रह गया है।
इस आलेख में हम इस विषय को सात खंडों में बताने का प्रयास कर रहें है –
- संविधान और अंग्रेज़ी कूटनीति
- पश्चिमी देशों में धर्मगुरुओं की भूमिका
- शंकराचार्य परंपरा और भारत के संत
- भारतीय संविधान में धर्मगुरुओं की उपेक्षा
- परिणाम – नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ह्रास
- पॉप और शंकराचार्य की तुलना
- भविष्य का मार्ग और समाधान
1. संविधान और अंग्रेज़ी कूटनीति
1.1 संविधान की आत्मा – भारतीय या पश्चिमी?
भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 से लागू हुआ। यह कहा गया कि यह “भारत की जनता की आकांक्षाओं का दर्पण” है। परंतु गहराई से देखें तो इसमें भारत की आत्मा अनुपस्थित है।
- संसदीय प्रणाली ब्रिटेन से ली गई।
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता अमेरिका से।
- मूल अधिकार अमेरिका से।
- नीति निर्देशक तत्व आयरलैंड से।
- संघीय ढांचा कनाडा से।
वास्तव में, वैदिक काल से लेकर महाभारत, कौटिल्य के अर्थशास्त्र, लिच्छवि गणराज्य और मौर्यकालीन सभा-समिति – सब प्रमाण हैं कि भारत में लोकतंत्र और राजधर्म की महान परंपरा रही है।
किन्तु संविधान निर्माताओं ने उस परंपरा को नज़रअंदाज़ किया। उन्होंने भारत को पश्चिमी विचारधारा के अनुसार ढालने का प्रयास किया।
1.2 अंग्रेज़ों की कूटनीति
अंग्रेज़ जब भारत आए, तो उन्होंने केवल धन-संपत्ति लूटने का काम नहीं किया। उन्होंने भारतीय आत्मा को कमजोर करने की साजिश रची।
- भारतीय शिक्षा प्रणाली को ध्वस्त कर दिया।
- संस्कृत और वेद-पुराण की शिक्षा पर रोक लगाई।
- चर्च और पादरियों को विशेषाधिकार दिए।
- भारतीय समाज को जाति और भाषा के आधार पर बाँटा।
- उनका उद्देश्य स्पष्ट था – भारत की शक्ति साधु-संतों और धर्मगुरुओं में है, उन्हें समाज से काट दो।
- संविधान निर्माण के समय भी अंग्रेज़ी मानसिकता का प्रभाव रहा। इसीलिए राज्य को “धर्मनिरपेक्ष” कहा गया और धर्माचार्यों की भूमिका को दरकिनार कर दिया गया।
2. पश्चिमी देशों में धर्मगुरुओं की भूमिका
2.1 पॉप का स्थान
- कैथोलिक ईसाई जगत में पॉप सर्वोच्च नेता हैं।
- वह रोम में वेटिकन सिटी से शासन करते हैं।
- उनकी बातों का प्रभाव केवल चर्च तक नहीं, बल्कि सरकारों तक पहुँचता है।
- अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका, एशिया – हर जगह पॉप की राय सम्मानित होती है।
2.2 शिक्षा और संस्कृति पर प्रभाव
- यूरोप में चर्च ने शिक्षा और चिकित्सा का कार्य संभाला। स्कूल और विश्वविद्यालय चर्च के अंतर्गत चले। समाज का नैतिक निर्माण पादरियों के हाथों हुआ।
2.3 राजनीतिक शक्ति
- यूरोप के इतिहास में पॉप और चर्च ने सम्राटों को चुनौती दी, युद्धों को प्रभावित किया, और राष्ट्रों की दिशा तय की। आज भी पॉप का संदेश संयुक्त राष्ट्र तक में सुना जाता है।
3. शंकराचार्य परंपरा और भारत के संत
3.1 शंकराचार्य की स्थापना
- आदि शंकराचार्य ने 8वीं शताब्दी में सनातन धर्म का पुनरुद्धार किया।
- उन्होंने अद्वैत वेदांत का प्रचार किया।
- चार मठ स्थापित किए – ज्योतिर्मठ (उत्तर), शृंगेरी (दक्षिण), द्वारका (पश्चिम), पुरी (पूर्व)।
- इन मठों के शंकराचार्य पूरे देश का आध्यात्मिक नेतृत्व करते रहे।
3.2 संतों का योगदान
- भारतीय संत समाज ने सदैव समाज को मार्ग दिखाया।
- गुरु गोविंद सिंह जी ने धर्म की रक्षा के लिए बलिदान दिया।
- संत तुलसीदास ने रामचरितमानस के माध्यम से जनजागरण किया।
- स्वामी विवेकानंद ने भारतीय संस्कृति का ध्वज विश्व में लहराया।
- दयानंद सरस्वती ने वेदों की ओर लौटने का आह्वान किया।
इन सबके बावजूद, संविधान और शासन में संतों की भूमिका नहीं मानी गई।
4. भारतीय संविधान में धर्मगुरुओं की उपेक्षा
4.1 धर्मनिरपेक्षता की गलत व्याख्या
- भारत में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ यह बना लिया गया कि राज्य को धर्म से कोई लेना-देना नहीं होगा। लेकिन वास्तविक अर्थ था – सभी धर्मों को समान सम्मान।
- पश्चिम में राज्य और चर्च अलग हैं, फिर भी चर्च को सम्मान है। भारत में धर्म और राज्य अलग कर दिए गए, लेकिन धर्माचार्यों को अपमानित भी किया गया।
4.2 शिक्षा से धर्म को हटाना
- संविधान ने धर्मशिक्षा को स्कूल-कॉलेजों से अलग कर दिया। परिणामस्वरूप नई पीढ़ी अपनी जड़ों से कट गई।
4.3 संतों को राजनीतिक प्रक्रिया से बाहर करना
- संसद और विधानसभाओं में संतों को प्रतिनिधित्व नहीं मिला। शासन और नीति निर्माण में उनकी राय को महत्व नहीं दिया गया।
5. परिणाम – नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ह्रास
5.1 नैतिक संकट
- परिवार टूट रहे हैं।
- अपराध बढ़ रहे हैं।
- भ्रष्टाचार चरम पर है।
- युवा नशे और पश्चिमी जीवनशैली की ओर आकर्षित हो रहे हैं।
5.2 सामाजिक संकट
- जातिवाद और क्षेत्रवाद बढ़ा।
- समाज में असमानता गहराई।
- राजनीति केवल सत्ता की होड़ बन गई।
5.3 सांस्कृतिक संकट
- हमारी भाषाएँ और लिपियाँ उपेक्षित हैं।
- भारतीय त्योहारों को भी “फालतू” कहा जाने लगा।
- साधु-संतों को मीडिया “पाखंडी” बताकर उपहास करता है।
6. पॉप और शंकराचार्य की तुलना
पहलू | पॉप (यूरोप) | शंकराचार्य (भारत) |
---|---|---|
स्थान | सर्वोच्च धार्मिक नेता | मठाधीश, सीमित भूमिका |
राजनीतिक प्रभाव | सरकारों पर गहरा असर | शासन से दूरी |
शिक्षा पर प्रभाव | चर्च के स्कूल, विश्वविद्यालय | आधुनिक शिक्षा से बाहर |
वैश्विक सम्मान | विश्व मंच पर सम्मानित | केवल धार्मिक आयोजनों में मान्यता |
राष्ट्रनिर्माण | यूरोप में निर्णायक | भारत में उपेक्षित |
यह तालिका स्पष्ट करती है कि जहाँ पश्चिम ने अपने धर्मगुरु को सर्वोच्च बनाया, वहीं भारत ने अपने शंकराचार्य को उपेक्षित किया।
7. भविष्य का मार्ग और समाधान
7.1 संविधान में सुधार
- भारत को अपने संविधान को पुनः भारतीय आत्मा से जोड़ना होगा।
- राजधर्म की अवधारणा को मान्यता देनी होगी।
- नीति निर्माण में धर्माचार्यों की सहभागिता सुनिश्चित करनी होगी।
- भारत को चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य और पुष्पमित्र शुंग जैसे धर्मनिष्ट राजा की आवश्यकता है न की भारत को विदेशी गुलामी के प्रतीक बनानेवाले नेताओ की |
7.2 शिक्षा का भारतीयकरण
- स्कूलों और विश्वविद्यालयों में गीता, उपनिषद, वेद और धर्मशिक्षा को स्थान देना होगा।
7.3 संतों का सम्मान
- साधु-संतों को केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित न रखकर, उन्हें समाज के नेतृत्व का अवसर देना होगा।
7.4 मीडिया और समाज की भूमिका
- मीडिया को संतों की छवि सुधारनी होगी। समाज को भी अपने धर्मगुरुओं का सम्मान करना होगा।
भारत की वास्तविक शक्ति धर्म और संत परंपरा में है। अंग्रेज़ों ने इसे नष्ट करने का षड्यंत्र किया और दुर्भाग्य से हमारा संविधान भी उसी दिशा में ढल गया। आज आवश्यकता है कि हम अपने शंकराचार्य और धर्माचार्यों को वही स्थान दें, जो यूरोप ने पॉप को दिया है।
जब तक भारत अपने धर्मगुरुओं का सम्मान नहीं करेगा, तब तक उसका विकास अधूरा रहेगा। जिस दिन भारत अपनी जड़ों से जुड़ेगा और संतों को राष्ट्रीय नेतृत्व में स्थान देगा, उसी दिन वह पुनः विश्वगुरु बनेगा।
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