जीएसटी : जनता सेवा टैक्स या जनता सताने टैक्स?
(एक कर सुधार की नौ वर्षीय यात्रा का मूल्यांकन)
डॉ राकेश दत्त मिश्र
प्रस्तावना : सुधार का सपना या नया बोझ?
भारत ने स्वतंत्रता के बाद से कर प्रणाली में अनेक सुधार देखे हैं, लेकिन 1 जुलाई 2017 का दिन इतिहास में विशेष रूप से दर्ज हो गया। इस दिन वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को लागू किया गया। इसे “गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स” नहीं बल्कि प्रधानमंत्री द्वारा “गुड्स एंड सिंपल टैक्स” कहा गया। संसद के विशेष सत्र में घंटा बजाकर इसकी शुरुआत हुई और इसे स्वतंत्र भारत के सबसे बड़े कर सुधार की संज्ञा दी गई।
सरकार ने जनता से वादा किया कि—
कर प्रणाली सरल होगी।
देशभर में एक समान कर लगेगा।
महंगाई घटेगी।
कारोबार करना आसान हो जाएगा।
टैक्स चोरी कम होगी और राजस्व बढ़ेगा।
परंतु नौ वर्षों बाद भी यह प्रश्न जस का तस है कि जीएसटी वास्तव में जनता की सेवा कर रहा है या जनता को सताने का एक नया तरीका बन गया है। छोटे दुकानदारों से लेकर मध्यम उद्योगों तक सबने इसका भार झेला है, और उपभोक्ता की थाली पर भी इसका असर साफ दिखा है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : भारतीय कर व्यवस्था और जीएसटी का जन्म
भारत की कर प्रणाली स्वतंत्रता के बाद से ही बहुस्तरीय और जटिल रही है। केंद्र सरकार अपने कर वसूलती थी, राज्य सरकारें अपने-अपने कर लगाती थीं। बिक्री कर, मूल्य वर्धित कर (VAT), सेवा कर, उत्पाद शुल्क, ऑक्ट्रॉय, एंट्री टैक्स—ऐसे अनेक कर एक साथ लागू थे।
इससे तीन समस्याएँ पैदा होती थीं:
दोहरा कराधान – एक ही वस्तु पर कई स्तरों पर टैक्स।
जटिलता – अलग-अलग राज्यों में अलग नियम और दरें।
बाजार का विभाजन – कोई वस्तु महाराष्ट्र में सस्ती और बिहार में महँगी।
इन समस्याओं को दूर करने के लिए लंबे समय से “एक समान कर प्रणाली” की माँग उठ रही थी। जीएसटी का विचार सबसे पहले 2000 के दशक की शुरुआत में सामने आया। 2006-07 के बजट भाषण में वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने जीएसटी को 2010 तक लागू करने की योजना का ऐलान किया था। हालाँकि राज्यों और केंद्र के बीच मतभेदों के कारण यह संभव न हो सका।
अंततः 2017 में केंद्र सरकार ने इसे लागू किया और दावा किया कि अब “एक देश, एक कर, एक बाजार” का सपना साकार हो गया है।
“एक देश, एक कर” – आदर्श बनाम वास्तविकता
सरकार ने जनता को विश्वास दिलाया कि जीएसटी से पूरा देश एक ही कर व्यवस्था के तहत आ जाएगा। परंतु वास्तविकता इससे बहुत भिन्न निकली।
पाँच मुख्य दरें रखी गईं: 0%, 5%, 12%, 18% और 28%।
इसके अलावा सेस (Cess) भी लगाया गया।
कई वस्तुएँ अभी भी जीएसटी से बाहर रहीं – पेट्रोल, डीजल, शराब, बिजली।
इस प्रकार “एक देश, एक कर” का सपना अधूरा रह गया। वस्तुतः यह “एक देश, अनेक कर दरें” बनकर रह गया।
जीएसटी की संरचना और जटिलताएँ
जीएसटी को लागू करते समय इसे “सरल” बताया गया था। लेकिन व्यवहार में यह जटिलताओं का जाल बन गया।
टैक्स स्लैब की बहुलता
0% पर कुछ आवश्यक वस्तुएँ।
5% पर खाद्यान्न और दवाएँ।
12% और 18% पर अधिकांश उपभोक्ता वस्तुएँ।
28% पर लक्ज़री वस्तुएँ और सेवाएँ।
ऊपर से Compensation Cess।
ई-वे बिल
माल ढुलाई के लिए हर व्यापारी को ऑनलाइन ई-वे बिल बनाना अनिवार्य। यह छोटे कारोबारियों के लिए सिरदर्द साबित हुआ।
इनपुट टैक्स क्रेडिट (ITC)
सिद्धांत तो अच्छा था कि व्यापारी को उसके द्वारा चुकाए गए टैक्स का समायोजन मिलेगा। परंतु व्यवहार में नियम इतने जटिल बनाए गए कि व्यापारियों का अकाउंटिंग खर्च और बढ़ गया।
ऑनलाइन पोर्टल और तकनीकी समस्याएँ
जीएसटी पोर्टल बार-बार ठप हुआ। छोटे व्यापारी, जिनके पास तकनीकी संसाधन नहीं थे, उन्हें CA पर निर्भर होना पड़ा।
विश्व बैंक ने 2018 में टिप्पणी की थी कि भारत का जीएसटी “दुनिया के सबसे जटिल टैक्स ढाँचों में से एक” है।
छोटे व्यापारियों और असंगठित क्षेत्र पर प्रभाव
भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ छोटे व्यापारी और असंगठित क्षेत्र हैं। जीएसटी ने इन्हें सबसे ज्यादा प्रभावित किया।
पहले जहाँ दुकानदार केवल बिक्री कर या वैट चुकाते थे, अब उन्हें हर महीने ऑनलाइन रिटर्न भरना पड़ता है।
छोटे दुकानदार और ठेलेवाले तक पोर्टल, पासवर्ड और नोटिसों के चक्कर में फँस गए।
कागज-कलम से हिसाब रखने वाले लोग अचानक कंप्यूटर और इंटरनेट की दुनिया में धकेल दिए गए।
फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (CAIT) ने कई बार कहा कि जीएसटी छोटे व्यापारियों को बर्बाद कर रहा है और यह “जनता सताने टैक्स” है।
आम उपभोक्ता की थाली और जीवन-यापन पर असर
जीएसटी लागू करते समय कहा गया था कि महंगाई घटेगी। परंतु वास्तविकता इसके उलट रही।
रोजमर्रा की वस्तुओं पर टैक्स दरें बढ़ीं।
सेवाओं पर 18% टैक्स लग गया – शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन सभी महँगे हो गए।
उपभोक्ता की थाली छोटी और जेब हल्की हो गई।
RBI की 2022 की रिपोर्ट ने स्वीकार किया कि अप्रत्यक्ष करों का बोझ अंततः उपभोक्ता पर ही पड़ता है।
Ease of Doing Business : दावा और सच्चाई
सरकार ने कहा था कि जीएसटी व्यापार को आसान बनाएगा। लेकिन व्यापारियों ने इसे Ease of Doing Business नहीं बल्कि Ease of Paying Taxes कहा।
हर महीने रिटर्न,
हर तिमाही ऑडिट,
जुर्माना और नोटिस,
पोर्टल की तकनीकी दिक्कतें।
2023 में इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स की रिपोर्ट आई, जिसमें कहा गया कि 70% छोटे व्यापारी जीएसटी से परेशान हैं।
अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों की राय
विश्व बैंक (2018) – भारत का जीएसटी सबसे जटिल ढाँचों में से एक।
अमर्त्य सेन और अन्य अर्थशास्त्री – अप्रत्यक्ष कर गरीब और मध्यम वर्ग पर सीधा बोझ डालते हैं।
RBI (2022) – अप्रत्यक्ष करों का भार अंततः उपभोक्ता पर आता है।
राजनीतिक आयाम और नौ साल का सवाल
सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि नौ साल तक दोषपूर्ण जीएसटी क्यों चलता रहा?
यदि यह इतना दोषपूर्ण था, तो प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को क्यों नहीं दिखाई दिया?
यदि दिखाई नहीं दिया, तो क्या वे वास्तव में “अंगूठाछाप” हैं?
और यदि दिखाई दिया, फिर भी सुधार नहीं किया गया, तो क्या जनता को जानबूझकर मूर्ख बनाया गया?
जनता की प्रतिक्रिया : व्यंग्य और तंज
जनता ने जीएसटी का नया अर्थ गढ़ा:
G = जनता को
S = सताते रहो
T = टैक्स लगाते रहो
व्यापारी कहते हैं:
“धंधा छोड़ो, जीएसटी का हिसाब-किताब ही असली धंधा बन गया है।”
आम आदमी कहता है:
“महंगाई घटाने का वादा था, लेकिन अब तो रसोई की आग ही महँगी हो गई है।”
भविष्य की राह : सुधार की ज़रूरत
यदि वास्तव में जीएसटी को सफल बनाना है, तो इसे सरल और पारदर्शी बनाना होगा।
टैक्स स्लैब घटाकर केवल 2 या 3 किए जाएँ।
छोटे व्यापारियों को रिटर्न फाइलिंग से राहत दी जाए।
पोर्टल की तकनीकी खामियाँ दूर हों।
पेट्रोल, डीजल, बिजली जैसी वस्तुओं को भी जीएसटी में लाया जाए।
निष्कर्ष : जनता सेवा या जनता सताना?
नौ वर्षों की यात्रा के बाद भी जीएसटी पर यही सवाल उठता है—
“सुधार का वादा था, पर सुधार हुआ किसका?”
व्यापारी की जेब खाली हुई।
उपभोक्ता की थाली छोटी हुई।
नेता का खजाना भारी हुआ।
जनता अब पूछ रही है: जीएसटी जनता की सेवा करने आया था या जनता को सताने?
संदर्भ
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसद में जीएसटी भाषण, 1 जुलाई 2017।
World Bank Report on India’s GST, 2018।
Confederation of All India Traders (CAIT) Press Release, 2019।
Reserve Bank of India, “State of Economy Report”, 2022।
Indian Chamber of Commerce Survey Report, 2023।
लेखक डॉ राकेश दत्त मिश्र बीमा , टैक्स सलाहकार और दिव्य रश्मि के सम्पादक है |
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