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हे प्रांतेश ,

हे प्रांतेश ,

हे बिहारेश !
कौन है विशेष ,
कौन अवशेष !!
सब हैं सम ,
या सब हैं विषम ।
या कुछ सम ,
शेष हैं विषम ।।
तराजू का पलड़ा ,
न हो ऊपर नीचे ।
दोनों ही हो सम ,
न चलो ऑंखें मींचे ।।
मस्तिष्क में हो समता ,
सबको समरूप खींचे ।
खेत में बराबर पानी ,
पूरी खेत ढंग से सींचे ।।
न चढ़े कोई शीश पे ,
न छूटे कोई धरा पर ।
रह न जाए कोई सूखा ,
विशेष जीते न हरा पर ।।
कहीं विशेष न मिले सानी ,
मिले न कहीं रुखी बानी ।
सबपे नजर सबपे ध्यान ,
सब संग हो एक पहचान ।।
हे प्रांतेश हे बिहारेश !
समझे हो प्रांतीच्छा ।
रुक जाए पलायनता ,
अंतर्राज्य से छूटे पीच्छा ।।
यही है सादर निवेदन ,
यही सादर प्रार्थना विशेष ।
बिहारी भी रहे बिहार में ,
नहीं बने अब ये अवशेष ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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