Advertisment1

यह एक धर्मिक और राष्ट्रवादी पत्रिका है जो पाठको के आपसी सहयोग के द्वारा प्रकाशित किया जाता है अपना सहयोग हमारे इस खाते में जमा करने का कष्ट करें | आप का छोटा सहयोग भी हमारे लिए लाखों के बराबर होगा |

माता दुर्गा : कामना से मोक्ष तक की दात्री

माता दुर्गा : कामना से मोक्ष तक की दात्री

लेखक : अवधेश झा

माता ही संसार का आधार हैं, और बिना माता के संसार से मुक्ति भी संभव नहीं है। ऐसा कोई नहीं जिसकी माता न हो, इसलिए सम्पूर्ण माताओं की माता स्वयं दुर्गा माता हैं। "माता" अर्थात् मूल स्रोत, जिससे समस्त सृष्टि का उद्भव हुआ है। संतान अपनी माता को भूल जाए, पर माता अपनी संतान को कभी नहीं भूलती।
जैसे—मिट्टी से बने घड़े को यह स्मरण न रहे कि उसका मूल मिट्टी है, किन्तु मिट्टी सदैव जानती है कि उसका रूप चाहे घड़ा हो, परंतु मूल में वह मिट्टी ही है। अर्थात्
मिट्टी से बने घड़े का रूप, रंग और नाम भिन्न हो सकते हैं, पर वह मूलतः मिट्टी ही है; उसी प्रकार आत्मा का वास्तविक स्वरूप परम माता से अभिन्न है। माता ही अपनी संतान के जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय—इन समस्त अवस्थाओं की अधिष्ठात्री हैं। बिना उनकी कृपा से कोई भी जीव इन अवस्थाओं को पार नहीं कर सकता। जो साधक इन अवस्थाओं से परे होकर आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित होता है, वही माता की वास्तविक सत्ता का अनुभव करता है।

नवरात्रि के पावन अवसर पर संवाद क्रम में पटना उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति राजेन्द्र प्रसाद ने कहा कि—
"श्रीदुर्गासप्तशती के प्रारम्भ में भगवान शंकर पार्वती जी से कहते हैं—

देव्या अष्टशती विद्या गुप्ता कैश्चिद् विनेयकैः।
अहं तु सर्वसारार्थं वक्ष्यामि सप्तश्लोकीकाम्॥
अर्थात्— सम्पूर्ण दुर्गासप्तशती का सार सात श्लोकों में निहित है। यदि कोई साधक दुःख, संकट, भय अथवा सांसारिक आवश्यकता से घिरा हो, तो सप्तश्लोकी दुर्गा का पाठ करने से उसे शीघ्र ही माँ की कृपा प्राप्त होती है।
इससे स्पष्ट होता है कि माता न केवल सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति करती हैं, अपितु जीवन की सभी बाधाओं को भी दूर करती हैं।
राजा सुरथ और समाधि वैश्य की कथा इस सत्य का जीवंत उदाहरण दुर्गासप्तशती के तेरहवें अध्याय में मिलता है। वहाँ दो साधकों की कथा वर्णित है—राजा सुरथ और समाधि वैश्य। राजा सुरथ अपना राज्य खोकर दु:खी थे। समाधि वैश्य, जिन्हें अपने परिवार से मोहभंग हो गया था, गहन वैराग्य से व्याकुल था।
दोनों ने माँ की तपस्या की। प्रसन्न होकर देवी ने कहा—
“वरं वृणुध्वं भद्रं वो यदवद्य मनोऽभिलषितम्।”
राजा ने पुनः राज्य प्राप्ति की कामना की, जबकि वैश्य ने मोक्ष का वर माँगा। देवी ने दोनों की इच्छाएँ पूर्ण कीं— राजा सुरथ को अगले जन्म में चक्रवर्ती साम्राज्य और अन्ततः मोक्ष की प्राप्ति हुई। समाधि वैश्य को तत्काल आत्मज्ञान और मुक्ति प्राप्त हुई। इस कथा से सिद्ध होता है कि माँ दुर्गा कामना-पूर्ति और मोक्ष—दोनों की दात्री हैं।"


वास्तव में, माता विद्या और अविद्या—दोनों की अधिष्ठात्री हैं।
देवीमहात्म्य में कहा गया है—
ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति॥
भावार्थ—माँ महामाया विद्वानों के हृदय को भी मोह में डाल सकती हैं। लेकिन आत्मज्ञानी को इस बंधन से मुक्त रखती है। यही उनका प्रारम्भिक स्वरूप है—माया और शक्ति की अधिष्ठात्री। वही जीव को संसार के प्रवाह में प्रवृत्त करती हैं, ताकि वह अपनी शुभ कामनाओं की पूर्ति कर, वैराग्य को धारण करें और अंततः मोक्ष की ओर अग्रसर हो सके।


माता दुर्गा का स्वरूप त्रिविध है—
प्रारम्भ में—माया स्वरूपिणी : जो जीव को संसार में प्रवृत्त करती हैं, तथा
मध्य में—कल्याणकारिणी : जो जीवन के प्रत्येक आयाम—बुद्धि, दया, क्षमा, तृष्णा, छाया, लक्ष्मी आदि में शक्ति देती हैं और अन्त में—मोक्षदायिनी : जो साधक की अन्तिम आकांक्षा पूर्ण कर उसे परमगति प्रदान करती हैं।

अतः माँ दुर्गा ही हैं— कामना की पूर्तिकर्त्री, जीवन की संरक्षिका और मोक्ष की प्रदायिनी। माँ दुर्गा जीव के जीवन को प्रारम्भ से अंत तक मार्गदर्शित करती हैं। वही माया हैं, वही शक्ति हैं, वही करुणा हैं, और वही परब्रह्म स्वरूपिणी मुक्ति दात्री भी।
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews #Divya Rashmi News, #दिव्य रश्मि न्यूज़ https://www.facebook.com/divyarashmimag

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ