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भारतेन्दु!

भारतेन्दु!

श्री मार्कण्डेय शारदेयः
दे गए हो जो हमें उपहार,
भारती का है अमल शृंगार,
नित्य हिन्दी गा रही तव गीत,
आज भी हो हिन्द-हृदयाधार।
मानता हूँ तुम नहीं हो अस्त,
हो गए हो साधना में व्यस्त,
दे गए हो जो दिशानिर्देश,
कर रहे हैं वही कितने हस्त।
तुम सुकविता-मल्लिका के कान्त,
गद्यनभ-मधुमान-मधुर निशान्त,
अवतरित भारत-धरा पर इन्दु,
आर्यवसुधा संस्कृतिक शुचि प्रान्त।
शारदा-कमला उभय प्रियपात्र,
दिव्यधर्मा वाङ्मयात्मक गात्र,
देशप्रेमी दीनबन्धु शरण्य,
बुध-गुणी- सेवक तुम्ही थे मात्र।
हे तपःस्वाध्याय- निरत महान,
देश का है आज यह आह्वान,
जगो, जागे देश जागें गान,
धरा का कण-कण बने मधुमान।(मेरी कविताओं की पुस्तक 'वाग्मिनी' से)
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