जितिया: पुत्र की लंबी आयु और सुख-समृद्धि के लिए माताओं का पवित्र व्रत
सत्येन्द्र कुमार पाठक
भारत के लोक-पर्वों में माताओं के त्याग और वात्सल्य की गाथाएँ निहित हैं। इन्हीं में से एक महत्वपूर्ण पर्व है- जितिया, जिसे जीवित्पुत्रिका के नाम से भी जाना जाता है। यह व्रत सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि एक माँ के असीम प्रेम, उसके अटूट विश्वास और अपनी संतान के लिए सब कुछ न्योछावर करने की भावना का प्रतीक है। इस तीन दिवसीय पर्व में, माताएँ अपनी संतानों की लंबी आयु, सुरक्षा और सुख-समृद्धि के लिए कठोर निर्जला उपवास रखती हैं। बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल सहित नेपाल के कुछ हिस्सों में यह व्रत बड़ी श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाया जाता है। जितिया पर्व हर साल अश्विन मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी से लेकर नवमी तिथि तक मनाया जाता है। इसका नाम 'जीवित्पुत्रिका' इसलिए पड़ा, क्योंकि यह व्रत पुत्रों को लंबी उम्र और जीवन में आने वाले कष्टों से बचाने के लिए किया जाता है। हालाँकि, आज के समय में, यह व्रत पुत्र और पुत्री दोनों के कल्याण के लिए किया जाता है, जो समाज की बदलती सोच को दर्शाता है। इस व्रत की कठोरता इसे अन्य व्रतों से अलग बनाती है। व्रतधारी माताएँ लगातार 24 घंटे से अधिक समय तक बिना अन्न और जल ग्रहण किए उपवास करती हैं। पर्व के तीन दिन विशेष रीति-रिवाजों से भरे होते हैं:
पहला दिन - नहाय-खाय (सप्तमी तिथि): इस दिन व्रत का संकल्प लेने वाली माताएँ सूर्योदय से पहले उठकर स्नान करती हैं। इसके बाद, वे विशेष रूप से तैयार किए गए सात्विक भोजन ग्रहण करती हैं। इस भोजन में मडुआ की रोटी, नोनी की साग, सत्पुतिया की सब्जी, कोहड़ा या परवल की पत्ती का प्रयोग और चावल-कढ़ी शामिल होते हैं। यह भोजन शरीर को उपवास के लिए तैयार करने में मदद करता है।दूसरा दिन - निर्जला व्रत (अष्टमी तिथि): यह व्रत का सबसे कठिन दिन होता है। इस दिन माताएँ पूरे दिन और रात बिना पानी की एक बूँद भी पिए उपवास करती हैं। इस दिन, वे कुश से बनी जीमूतवाहन की प्रतिमा की पूजा करती हैं और कथा सुनती हैं। तीसरा दिन - पारन (नवमी तिथि): नवमी तिथि पर व्रत का पारन किया जाता है। पारन से पहले, माताएँ विशेष भोग तैयार करती हैं और उसे चील और सियारिन को अर्पित करती हैं। यह भोग चावल, चने, चावल के आटे से बना तोड़ा, कढ़ी, नोनी की साग और मडुआ की रोटी से बना होता है। इसके बाद, वे चना, नोनी की साग और खरे के बीज को गाय के कच्चे दूध के साथ ग्रहण कर अपना व्रत तोड़ती हैं।
जितिया व्रत से जुड़ी कई कहानियाँ हैं जो इस पर्व के पीछे की गहरी मान्यताओं को समझाती हैं। इनमें से दो कहानियाँ सबसे ज्यादा प्रचलित हैं: चील-सियारिन की कथा और जीमूतवाहन की कथा है । एक जंगल में एक चील और एक सियारिन रहती थीं। एक बार, उन्होंने पास की एक बस्ती में महिलाओं को जीवित्पुत्रिका व्रत करते देखा। दोनों ने भी यह व्रत रखने का निश्चय किया। चील ने पूरे समर्पण और निष्ठा के साथ व्रत का पालन किया, जबकि सियारिन से भूख बर्दाश्त नहीं हुई और उसने चुपके से भोजन कर लिया।व्रत के फलस्वरूप, चील को लंबी आयु वाली और स्वस्थ संतान की प्राप्ति हुई। वहीं, सियारिन के सभी बच्चे जन्म के कुछ दिन बाद ही मर गए। इस कहानी से यह संदेश मिलता है कि व्रत का फल तभी मिलता है जब उसे पूरी ईमानदारी और समर्पण के साथ किया जाए।
जितिया व्रत की सबसे महत्वपूर्ण कहानी जीमूतवाहन की है। कथासरित्सागर और भविष्य पुराण जैसी प्राचीन ग्रंथों में जीमूतवाहन को एक अत्यंत दयालु, परोपकारी और धर्मात्मा राजकुमार के रूप में वर्णित किया गया है।
जीमूतवाहन गंधर्वराज जीमूतकेतु के पुत्र थे। उनके पास कल्पवृक्ष जैसा वरदान था, जिसका उपयोग उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए नहीं, बल्कि पूरी दुनिया से दरिद्रता मिटाने के लिए किया। जब उनके अपने ही भाई-बंधुओं ने राज्य के लालच में उन पर हमला करने का सोचा, तो उन्होंने रक्तपात से बचने के लिए राज्य छोड़ दिया और अपने माता-पिता के साथ मलयाचल पर्वत पर आश्रम बनाकर रहने लगे। एक दिन, वे अपने साले मित्रावसु के साथ समुद्र तट पर घूम रहे थे, तब उन्होंने हड्डियों का एक विशाल ढेर देखा। इस पर मित्रावसु ने उन्हें बताया कि यह गरुड़ द्वारा खाए गए नागों की अस्थियाँ हैं। नागवंश को बचाने के लिए नागराज वासुकी ने गरुड़ से समझौता किया था कि वह हर दिन एक नाग को स्वयं गरुड़ के भोजन के लिए भेजेंगे। यह सुनकर जीमूतवाहन का हृदय दुःख से भर गया। उन्होंने फैसला किया कि वह अपने नश्वर शरीर का उपयोग किसी के प्राण बचाने के लिए करेंगे। उसी समय, उन्होंने एक बूढ़ी नागमाता को विलाप करते हुए देखा, जिसका बेटा शंखचूड़ उस दिन गरुड़ का आहार बनने वाला था। जीमूतवाहन ने नागमाता से कहा, "माता, आप चिंता न करें। मैं आपके पुत्र की जगह अपना शरीर गरुड़ को भेंट करूँगा।" शंखचूड़ और उसकी माता ने उन्हें रोकने की कोशिश की, लेकिन जीमूतवाहन अपने निश्चय पर अडिग रहे। राजा जीमूतवाहन ने खुद को एक लाल कपड़े से ढँका और उस चट्टान पर लेट गए जहाँ गरुड़ अपना भोजन उठाने आता था। गरुड़ आया और बिना कुछ देखे उन्हें अपने पंजों में दबाकर उड़ गया। लेकिन जब उसने देखा कि उसका शिकार चिल्लाने या विरोध करने की बजाय शांत है, तो वह आश्चर्यचकित हुआ। उसने कपड़ा हटाया और जीमूतवाहन को पाया। जीमूतवाहन ने बिना किसी भय के अपनी पूरी कहानी गरुड़ को बताई। उनकी बहादुरी, निस्वार्थता और परोपकार से गरुड़ का हृदय परिवर्तित हो गया। उसने जीमूतवाहन को जीवनदान दिया और भविष्य में कभी किसी नाग का शिकार न करने का वचन दिया। इतना ही नहीं, गरुड़ ने अपनी अमृत दृष्टि से उन सभी नागों को भी जीवित कर दिया जिन्हें उसने पहले खाया था। जीमूतवाहन के इस त्याग और दयालुता के कारण ही नागवंश की रक्षा हुई और तब से यह व्रत माताओं द्वारा अपनी संतान की सुरक्षा के लिए मनाया जाने लगा है।जितिया व्रत का उल्लेख केवल लोक कथाओं में ही नहीं, बल्कि कई प्रमुख पुराणों में भी मिलता है। भविष्य पुराण, गरुड़पुराण और महाभारत जैसे ग्रंथों में इस व्रत के महत्व को स्वीकार किया गया है। महाभारत काल में, जब अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र चलाकर उत्तरा के गर्भ में पल रहे शिशु को मारने की कोशिश की थी, तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपने पुण्य कर्मों के बल पर उस शिशु को जीवनदान दिया था। यही शिशु बाद में राजा परीक्षित कहलाए। यह घटना भी इस विश्वास को पुष्ट करती है कि सच्ची प्रार्थना और पुण्य कर्म संतान को हर संकट को दूर कर सकते हैं। यह पर्व केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं है, बल्कि एक सांस्कृतिक विरासत है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी माताओं के असीम प्रेम और त्याग को जीवंत रखती है।
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