"त्याग की सार्थकता"
त्याग का स्वरूप तभी उदात्त होता है जब वह विवेक से संलग्न हो। जहाँ उसका सम्मान न हो, वहाँ त्याग केवल आत्मविनाश की भूमिका निभाता है। ठीक उसी प्रकार जैसे प्रखर मध्याह्न में प्रज्वलित मोमबत्ती, जो न अंधकार को दूर करती है, न प्रकाश की आवश्यकता को पूर्ण करती है—वह केवल अपने अस्तित्व का दहन करती है। त्याग यदि विवेकविहीन हो, तो वह आत्मा को शुष्क करता है, किंतु यदि उद्देश्यपूर्ण हो तो वह साधना बन जाता है।
सच्चा त्याग वह है जो स्वयं का अहं विसर्जित कर, दूसरों के जीवन में आलोक भर दे। यह वह शक्ति है, जो व्यक्तिगत क्षुद्रता को लांघकर व्यापक लोककल्याण से जुड़ जाती है। त्याग की सार्थकता इस बात में नहीं है कि हम कितना खोते हैं, बल्कि इसमें है कि हमारे त्याग से कितनों के जीवन में नवीन स्पंदन उत्पन्न होता है। वह दीपक ही पूजनीय है जो अंधकार में जलकर पथिक को दिशा दिखाए; अन्यथा उसका जलना केवल क्षय है।
त्याग का दार्शनिक मर्म यह है कि यह आत्म-समर्पण का नहीं, आत्म-उत्कर्ष का साधन है। जब हम अपने अस्तित्व को व्यापक विश्वचेतना में विलीन कर देते हैं, तभी त्याग अमरत्व को प्राप्त होता है। मोमबत्ती यदि उचित समय और स्थान पर जले, तो वह केवल प्रकाश नहीं देती, बल्कि अनंत सत्य का प्रतीक बन जाती है—यह संदेश कि जीवन का मूल्य स्वयं को व्यर्थ करने में नहीं, बल्कि सही क्षण पर स्वयं को अर्पित करने में है।
. "सनातन"
(एक सोच , प्रेरणा और संस्कार)
पंकज शर्मा
(कमल सनातनी)
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