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दहेज उत्पीड़न के मुकदमों में बरी हुए निर्दोषों के अधिकार और न्याय का प्रश्न

दहेज उत्पीड़न के मुकदमों में बरी हुए निर्दोषों के अधिकार और न्याय का प्रश्न


— डॉ. राकेश दत्त मिश्र

भारतीय समाज में विवाह केवल दो व्यक्तियों का नहीं बल्कि दो परिवारों का संबंध माना जाता है। यह संबंध प्रेम, विश्वास और सामाजिक सहयोग की नींव पर टिका होना चाहिए, किंतु वास्तविकता यह है कि समय-समय पर यह पवित्र बंधन दहेज जैसी कुप्रथाओं के कारण कलंकित होता रहा है। दहेज उत्पीड़न जैसे अपराधों से पीड़ित महिलाओं की सुरक्षा के लिए भारतीय दंड संहिता में धारा 498ए का प्रावधान किया गया, ताकि पीड़ित स्त्रियों को न्याय मिल सके और दोषियों को कड़ी सजा दी जा सके।

लेकिन समय के साथ यह भी सामने आया कि इस कानून का कई मामलों में दुरुपयोग हुआ। झूठे मुकदमे दायर कर निर्दोष पति, सास-ससुर, देवर-जेठ आदि को सालों तक जेल की यातना सहनी पड़ी। आज पटना की अदालत का फैसला—जिसमें सभी आरोपियों को बरी कर दिया गया—इस प्रश्न को पुनः हमारे सामने रखता है:

“अगर आरोपी निर्दोष थे तो उनके खोए हुए दिन, प्रतिष्ठा, मानसिक यंत्रणा और कैद की भरपाई कौन करेगा? क्या अदालत उन्हें उनके जीवन के वे वर्ष लौटा सकती है?”

धारा 498ए और न्यायिक दृष्टिकोण

  • धारा 498ए, भारतीय दंड संहिता का वह प्रावधान है जिसे 1983 में शामिल किया गया। इसका उद्देश्य था—
महिलाओं को दहेज की मांग और मानसिक/शारीरिक उत्पीड़न से सुरक्षा देना।

दोषियों को सख्त दंडित करना ताकि समाज में निवारक प्रभाव पड़े।

विवाह संस्था में समानता और न्याय स्थापित करना।

लेकिन न्यायपालिका ने समय-समय पर इस कानून के दुरुपयोग को भी गंभीरता से लिया। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार कहा है कि 498ए के मामलों में झूठे आरोप भी बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। अदालतों ने यहाँ तक कहा कि यह कानून कभी-कभी "हथियार" की तरह इस्तेमाल किया जाता है, "ढाल" की तरह नहीं।
निर्दोष होने पर भी सजा भुगतना: एक विडंबना

कानून की प्रक्रिया लंबी है। अक्सर मुकदमे वर्षों तक चलते हैं। अभियुक्त, जो अंततः निर्दोष साबित होते हैं, उन्हें भी

  • जेल में बिताए दिन,
  • सामाजिक अपमान,
  • परिवार से दूरी,
  • करियर और व्यवसाय की हानि,
  • मानसिक तनाव और स्वास्थ्य की हानि,
  • सभी का सामना करना पड़ता है।


यहाँ सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर अदालत अंत में कह देती है कि आरोपी निर्दोष है, तो क्या वह उन खोए हुए दिनों को लौटा सकती है? जवाब साफ है—नहीं।

हर्जाना और प्रतिकर का प्रश्न

विश्व के कई देशों में ऐसी व्यवस्था है कि यदि किसी निर्दोष व्यक्ति को गलत तरीके से जेल भेजा गया हो, तो उसे प्रतिपूर्ति (Compensation) दी जाती है। भारत में भी इस विषय पर संवैधानिक बहस हुई है।

अनुच्छेद 21 कहता है कि प्रत्येक नागरिक को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार है। यदि यह अधिकार अनुचित रूप से छीना गया, तो राज्य की जिम्मेदारी बनती है कि वह पीड़ित को मुआवज़ा दे।

सुप्रीम कोर्ट ने कुछ मामलों (जैसे रुदुल शाह बनाम बिहार राज्य, 1983) में यह स्पष्ट किया कि अनुचित कैद की स्थिति में पीड़ित को प्रतिकर मिलना चाहिए।

लेकिन व्यवहारिक तौर पर, भारत में झूठे दहेज मामलों में बरी हुए अभियुक्तों को शायद ही कभी कोई मुआवजा मिलता है।

समाज और परिवार पर प्रभाव

  • दहेज उत्पीड़न के झूठे मामलों का असर सिर्फ आरोपी पर नहीं, बल्कि पूरे परिवार पर पड़ता है।
  • बूढ़े माता-पिता को कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटने पड़ते हैं।
  • भाई-बहन, रिश्तेदार भी कलंक का बोझ झेलते हैं।
  • समाज में सम्मान धूमिल हो जाता है।
  • बच्चों की पढ़ाई और करियर प्रभावित होते हैं।

और जब अदालत कह देती है कि "आरोपी निर्दोष है", तब तक जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बर्बाद हो चुका होता है।

क्या अदालत खोए हुए दिन लौटा सकती है?

यह प्रश्न भावनात्मक और दार्शनिक दोनों है।
  • कानूनी रूप से अदालत समय को वापस नहीं ला सकती।
  • सामाजिक रूप से बदनाम हो चुके नाम को तुरंत सम्मान दिला पाना कठिन होता है।
  • मानसिक रूप से जेल की पीड़ा जीवनभर की छाया छोड़ जाती है।

इसलिए एक निर्दोष व्यक्ति के लिए यह सच्चाई हमेशा रहेगी कि न्याय मिला, लेकिन देर से मिला—और देर से मिला न्याय, अधूरा न्याय है।

सुधार की दिशा

  • यदि हमें इस समस्या का समाधान चाहिए तो कुछ ठोस कदम उठाने होंगे—
  • फास्ट ट्रैक कोर्ट: दहेज उत्पीड़न के मामलों का निपटारा जल्दी हो।
  • प्रारंभिक जांच: तुरंत गिरफ्तारी न हो, पहले निष्पक्ष जांच की जाए।
  • झूठे मामले पर सजा: अगर यह सिद्ध हो कि मामला झूठा था, तो शिकायतकर्ता पर दंड हो।
  • मुआवज़ा प्रणाली: निर्दोष साबित हुए अभियुक्तों को राज्य की ओर से आर्थिक हर्जाना मिले।
  • काउंसलिंग और मध्यस्थता: विवाह विवादों को पहले बातचीत से सुलझाने का प्रयास हो।
  • सामाजिक जागरूकता: दहेज प्रथा को जड़ से मिटाने के लिए शिक्षा और जनजागरण जरूरी है।

अंतरराष्ट्रीय दृष्टांत

  • अमेरिका और ब्रिटेन में यदि किसी को गलत तरीके से जेल भेजा जाता है, तो उसे लाखों डॉलर का मुआवज़ा मिलता है।
  • जापान और जर्मनी में भी राज्य की जिम्मेदारी मानी जाती है कि गलत कैद के लिए भरपाई की जाए।
  • भारत में भी ऐसी व्यवस्था को लागू करना आवश्यक है ताकि निर्दोष को न्याय वास्तव में मिले।

पटना की अदालत का आज का फैसला हमें यह सोचने पर विवश करता है कि न्याय केवल दोषियों को सजा देने का नाम नहीं है, बल्कि निर्दोषों की रक्षा करना भी न्याय का समान रूप से महत्वपूर्ण हिस्सा है।

यदि कोई निर्दोष व्यक्ति वर्षों जेल में बिताकर अंततः बरी हो जाता है, तो उसकी खोई हुई जवानी, बिगड़े हुए रिश्ते, टूटी हुई आर्थिक स्थिति और मानसिक आघात की भरपाई कौन करेगा?

अदालत समय लौटा नहीं सकती। परंतु राज्य की जिम्मेदारी है कि वह मुआवज़ा और पुनर्वास की ठोस व्यवस्था करे।

न्याय तभी पूर्ण होगा, जब निर्दोष को केवल बरी नहीं किया जाएगा, बल्कि उसे उसके खोए हुए जीवन की भरपाई भी मिलेगी। अन्यथा यह व्यवस्था हमेशा अधूरी और अन्यायपूर्ण मानी जाएगी।

✍️ डॉ. राकेश दत्त मिश्र

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