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नवरात्र : देवी का व्रत

नवरात्र : देवी का व्रत

महिषासुर के संहार के लिए अवतरित हुई श्री दुर्गादेवी का उत्सव ही नवरात्र है। नवरात्र देवी का व्रत है। अनेक स्थानों पर यह व्रत कुलाचार के रूप में भी मनाया जाता है। कई राज्यों में इसे उत्सव का रूप भी दिया गया है। इस उत्सव में आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक 9 दिनों का व्रत रखकर देवी की भावपूर्ण आराधना की जाती है। इस जगत्पालिनी, जगदोद्धारिणी मां शक्ति की उपासना हिन्दू धर्म में दो बार नवरात्रि के रूप में, विशेष रूप से की जाती है। इस वर्ष नवरात्रि आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि 22 सितम्बर से प्रारम्भ हो रही है।
इस उत्सव से देवीतत्व का लाभ मिलता है ; किन्तु आजकल नवरात्रोत्सव के विकृत स्वरुप के कारण न केवल देवीतत्व का लाभ मिलना कम हुआ है बल्कि उसकी पवित्रता भी घट गयी है। इस उत्सव में हो रहे अनुचित आचरणों को रोककर उसका पावित्र्य बनाए रखना, यही समयानुसार धर्मपालन है।
इस लेख में नवरात्र व्रत का इतिहास, उसका महत्व और इसे मनाने के पीछे का शास्त्र जानेंगे।

इतिहास :
अ. नारदजी ने श्रीरामजी को यह व्रत करने का उपदेश दिया था ताकि वे रावण का वध कर सकें। व्रत पूर्ण करने के बाद श्रीरामजी ने लंका पर चढ़ाई कर रावण का वध किया।
आ. महिषासुर नामक असुर से प्रतिपदा से लेकर नवमी तक नौ दिन युद्ध कर देवी ने नवमी की रात को उसका वध किया। तभी से उन्हें महिषासुरमर्दिनी कहा जाता है।
युगों-युगों से नवरात्रि का व्रत रखा जाता है । इन 9 दिनों में देवी के 9 रूपों की पूजा की जाती है । यह व्रत आदिशक्ति की उपासना ही है। देवी मां नवरात्रि के नौ दिनों में जगत में तमोगुण का प्रभाव घटाती हैं और सत्त्वगुण बढ़ाती हैं ।

नवरात्रि अंतर्गत देवी के प्रमुख रूप एवं तिथियां
श्री दुर्गासप्तशति के अनुसार श्री दुर्गादेवी के तीन प्रमुख रूप हैं ।
1. महासरस्वती, जो ‘गति’ तत्त्व की प्रतीक है ।
2. महालक्ष्मी, जो ‘दिशा’ तत्त्व की प्रतीक है ।
3. महाकाली जो ‘काल’ तत्त्व का प्रतीक है।
घटस्थापना के उपरांत पंचमी, षष्ठी, अष्टमी एवं नवमी का विशेष महत्त्व है । पंचमी के दिन देवी के नौ रूपों में से एक श्री ललिता देवी अर्थात महात्रिपुरसुंदरी का व्रत होता है । शुक्ल अष्टमी एवं नवमी ये महातिथियां हैं । इन तिथियों पर चंडीहोम भी किया जाता है।


महत्व
जब-जब संसार में तामसी, आसुरी और क्रूर लोग प्रबल होकर सात्त्विक एवं धर्मनिष्ठ सज्जनों को पीड़ा देते हैं, तब-तब देवी धर्म की स्थापना हेतु पुनः अवतार लेती हैं। यह व्रत उसी देवी का है। नवरात्र में देवीतत्त्व सामान्य से 1000 गुना अधिक कार्यरत होता है। अधिकाधिक लाभ हेतु इस काल में ‘श्री दुर्गादेव्यै नमः’ नामजप करना चाहिए।


व्रत करने की पद्धति
आश्विन शुक्ल प्रतिपदा के दिन घर में पवित्र स्थान पर वेदी बनाकर सिंह पर आरूढ़ अष्टभुजा देवी की मूर्ति और नवार्णव यंत्र (“ॐ नमः शिवाय” मंत्र के नौ अक्षरों का दिव्य यंत्र) की स्थापना करें। घट स्थापित कर देवी की पूजा करें।
खेती की मिट्टी लाकर चौकोर बेदी बनाएं और उसमें सात प्रकार के अन्न (जौ, गेहूं, तिल, मूंग, चना, धान एवं उड़द) बोएं।
कलश में पवित्र सामग्री डालकर मंत्रोच्चार करें।
नौ दिन तक कुमारिकाओं और सुहागिनों की पूजा कर भोजन कराएं।
अखंड दीप प्रज्वलन, चंडीपाठ, सप्तशती पाठ, देवी भागवत श्रवण, ललिता पूजन, सरस्वती पूजन, उपवास, जागरण आदि करें।
उपवास रहने पर भी देवी को अन्न नैवेद्य दिखाना चाहिए।
इस समय दाढ़ी-मूंछ और बाल न काटना, ब्रह्मचर्य पालन, बिस्तर पर न सोना, जूते-चप्पल का त्याग करना इत्यादि आचार का पालन करना चाहिए।
नवमी को समाराधना कर देवी का विसर्जन करें।
विसर्जन के समय बोए गए अन्न के अंकुर देवी को अर्पित कर ‘शाकंभरी देवी’ रूप में स्त्रियां सिर पर रखकर विसर्जन करती हैं।
अंत में घट और देवी की मनोभाव से पूजा समाप्त कर विसर्जन करें।
यदि दीप बुझ जाए तो कारण दूर कर पुनः जलाएं और देवी का नामजप करें।


देवी से प्रार्थना करें – "हे माता, हम शक्तिहीन हैं, भोगों में लिप्त होकर मायासक्त हो गए हैं। हमें बल दें जिससे हम आसुरी वृत्तियों का नाश कर सकें।"


भावार्थ
`असुषु रमन्ते इति असुर:।’ अर्थात् `जो सदैव भौतिक आनंद, भोग-विलासिता में लीन रहता है, वह असुर कहलाता है।’ आज प्रत्येक मनुष्य के हृदय में इस असुर का वास्तव्य है, जिसने मनुष्य की मूल आंतरिक दैवी वृत्तियों पर वर्चस्व जमा लिया है। इस असुर की माया को पहचानकर, उसके आसुरी बंधनों से मुक्त होने के लिए शक्ति की उपासना आवश्यक है। इसलिए नवरात्रि के नौ दिनों में शक्ति की उपासना करनी चाहिए।


हमारे ऋषि-मुनियों ने विविध श्लोक, मंत्र इत्यादि माध्यमों से देवी मां की स्तुति कर उनकी कृपा प्राप्त की है। श्री दुर्गासप्तशति के एक श्लोक में कहा गया है, शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे ।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमो:स्तुते ।। – श्री दुर्गासप्तशती, अध्याय 11.12
अर्थात शरण आए दीन एवं आर्त लोगों का रक्षण करने में सदैव तत्पर और सभी की पीड़ा दूर करनेवाली हे देवी नारायणी, आपको मेरा नमस्कार है।
देवी की शरण में जाने से हम उनकी कृपा के पात्र बनते हैं। इससे हमारी और भविष्य में समाज की आसुरी वृत्ति में परिवर्तन होकर सभी सात्त्विक बन सकते हैं। यही कारण है कि, देवीतत्त्व के अधिकतम कार्यरत रहने की कालावधि अर्थात नवरात्रि विशेष रूप से मनाई जाती है।

संदर्भ : सनातन संस्था का ग्रंथ "त्यौहार, धार्मिक उत्सव, एवं व्रत
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