क्यों बने हो तुम मौनी बाबा ,
क्यों साध रखे हो तुम मौन ।मुॅंह खोलकर तुम ये बता दो ,
वास्तव में मानव हो तू कौन ।।
साधे हो तुम तो चुप्पी ऐसे ,
जैसे अपराध जगत के डाॅन ।
क्या वाकई है तू अपराधी ,
या इनमें से हो कोई भी नाॅन ।।
क्यों तू हो गया है खामोश ,
कारण कुछ तुम बताओ न ।
हो गई है गलती कोई तुमसे ,
उसे भी तुम कह सुनाओ न ।।
धड़क रहा न जाने क्यों दिल ,
दिल का धड़कन बढ़ रहा है ।
बता रहा खोमोशी बहुत कुछ ,
मेरा दिल मुॅंह को कढ़ रहा है ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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