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चुनावी राजनीति का पतन: जब 'विकास' का नारा 'विनाश' की हुंकार बन गया

चुनावी राजनीति का पतन: जब 'विकास' का नारा 'विनाश' की हुंकार बन गया

सत्येन्द्र कुमार पाठक
भारतीय राजनीति में चुनावी नारे समय के साथ बदलते रहे हैं, जो समाज की बदलती प्राथमिकताओं और चुनौतियों को दर्शाते हैं। एक समय था जब चुनाव नैतिक मूल्यों, राष्ट्रीय नीतियों और जनता के विकास पर केंद्रित होते थे। लेकिन, आज का चुनावी परिदृश्य पूरी तरह से बदल गया है। 1952 के संसदीय आम चुनावों से लेकर आज तक, हमने एक बड़ा बदलाव देखा है। कभी 'रोटी, कपड़ा और मकान' जैसे सीधे-सादे नारे थे, तो कभी 1967 में 'इंदिरा हटाओ, देश बचाओ' जैसे जोशीले नारे। 1991 और 1997-98 में चुनावी नारों में सामाजिक न्याय और आर्थिक सुधारों का मिश्रण देखने को मिला। लेकिन, आज के नारों में व्यक्तिगत कटाक्ष, जातिवाद और क्षेत्रवाद का जहर घुल गया है। आज की राजनीति में दो ध्रुव स्पष्ट दिखाई देते हैं: एक तरफ गोलू है, जो नकारात्मकता का प्रतीक है, और दूसरी तरफ भोलू, जो सकारात्मकता का प्रतिनिधित्व करते हैं। गोलू का दर्शन: गोलू का मानना है कि परिवार और जाति का विकास तभी संभव है जब नकारात्मक कार्यों को अपनाया जाए। गोलू के समर्थक, सोलू और पुल्लू, भ्रष्टाचार, महंगाई, जातिवाद और परिवारवाद के समर्थक हैं। वे इन बुराइयों को ही विकास का साधन मानते हैं। गोलू, एक आपराधिक पृष्ठभूमि वाला व्यक्ति, समाज में प्रवेश कर चुका है और अपनी शक्ति का दुरुपयोग करता है। उसके लिए नैतिकता और विकास के बजाय व्यक्तिगत लाभ और सत्ता की भूख ही सर्वोपरि है।
भोलू की चिंताएं: भोलू और उनके समर्थक गोलू के इस दर्शन से असहमत हैं। वे समाज में राष्ट्रवाद, समाजवाद, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और महंगाई जैसी समस्याओं से चिंतित हैं। भोलू का मानना है कि समाज का सच्चा विकास तभी होगा जब सभी नागरिक मिलकर इन बुराइयों का सामना करें। उनके विचारों में शांति, सद्भाव और सकारात्मकता की झलक है। गोलू और भोलू के बीच की यह वैचारिक लड़ाई जल्द ही जुबानी जंग में बदल जाती है। गोलू अपनी भाषा में अभद्र और अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करता है, जबकि भोलू तर्कों और शांति से जवाब देते हैं। यह टकराव इस बात को दर्शाता है कि कैसे आज की राजनीति में भाषा का स्तर गिरता जा रहा है। 2024 में 'चोर' और 2025 में 'गालियां' जैसे शब्दों का खुलकर प्रयोग होने लगा है, जो एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है।
जब गोलू के कारनामे असहनीय हो जाते हैं, तो भोलू के समर्थक शांत नहीं बैठते। वे गोलू और उसके समर्थकों को चेतावनी देते हैं कि अगर वे अपनी हरकतों से बाज नहीं आए तो इसके गंभीर परिणाम होंगे। लेकिन गोलू पर इसका कोई असर नहीं होता। वह अपनी मनमानी जारी रखता है। अंत में, भोलू के समर्थक मिलकर गोलू और उसके गुर्गों को गांव से बाहर निकालने के लिए मजबूर कर देते हैं। यह घटना एक प्रतीकात्मक जीत है। यह दर्शाती है कि जब नकारात्मकता अपनी सारी हदें पार कर देती है, तो समाज को खुद ही खड़ा होकर उसका मुकाबला करना पड़ता है। इस पूरे घटनाक्रम में हमें यह सीख मिलती है कि राजनीति का पतन तभी होता है जब जनता मूक दर्शक बन जाती है। हमें अपने नेताओं के नारों और कार्यों को ध्यान से देखना चाहिए, क्योंकि हमारे भविष्य का निर्माण इन्हीं पर निर्भर करता है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि 'सकारात्मक' नारों की गूंज 'नकारात्मक' नारों को दबा दे।क्या आप मानते हैं कि समाज को बचाने के लिए भोलू के समर्थकों द्वारा उठाया गया कदम सही था ।
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