“सामूहिक दृष्टि में निहित सत्य”
यह उद्धरण मानव जीवन की एक गहरी सच्चाई को उद्घाटित करता है। हम सब अपने विचारों एवं कर्मों को प्रायः शुद्ध एवं निर्दोष मान लेते हैं। हमें लगता है कि जो हम सोचते या करते हैं, वही सही है एवं उसमें कोई त्रुटि नहीं हो सकती। किंतु जीवन केवल हमारे दृष्टिकोण तक सीमित नहीं है। संसार विविध चेतनाओं एवं अनुभवों का संगम है। जब हम दूसरों की दृष्टि एवं अनुभवों को महत्व देते हैं, तभी हमारी समझ व्यापक एवं परिपक्व बनती है।
सच्ची प्रज्ञा का अर्थ केवल अपने ज्ञान का विस्तार नहीं, बल्कि दूसरों की धारणाओं एवं भावनाओं का सम्मान करना भी है। यदि हम दूसरों की नजर से स्वयं को देखने का अभ्यास करें, तो न केवल अपने दोषों को पहचान पाएंगे, बल्कि अपने सद्गुणों को भी अधिक स्पष्ट रूप से समझ पाएंगे। यही आत्ममंथन हमें संतुलित, सहिष्णु एवं संवेदनशील बनाता है।
अतः यह आवश्यक है कि हम अपने विचारों एवं कर्मों के मूल्यांकन में दूसरों की प्रतिक्रिया एवं दृष्टिकोण को स्थान दें। सामूहिक दृष्टि से ही सत्य की संपूर्णता प्रकट होती है एवं उसी में जीवन का संतुलन छिपा है। जो व्यक्ति इस सत्य को स्वीकार करता है, वही वास्तव में विवेकशील एवं प्रेरणादायी बनता है।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित ✍️ "कमल की कलम से"✍️
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