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मित्रता का भाव ही मैत्री है ,

मित्रता का भाव ही मैत्री है ,

मैत्री है दोनों का सम भाव ।
ऊॅंच नीच का न भाव कहीं ,
न उर हो पावनता अभाव ।।
अमीरी गरीबी का न मायने ,
स्वभाव दोनों के ही एक हों ।
दोनों दिल कोई कपट न हों ,
चरित्र व्यवहार भी नेक हों ‌।।
राधा हेतु कृष्ण तो श्याम थे ,
मथुरा हेतु कृष्ण थे महाराज ।
सुदामा हेतु कृष्ण थे ये कृष्ण ,
दोनों का था दोनों पर नाज ।।
न कृष्ण रहे महाराज कभी ,
न सुदामा को समझा दरिद्र ।
आसन दिया था समकक्ष ही ,
लगाकर रखा हृदय करीब ।।
मित्र बनकर रहता इत्र सदा ,
जिससे प्रसन्न होते देव पित्र ।
दोनों हृदय खोलकर देख ले ,
दोनों में होंगे दोनों के ये चित्र ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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