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हिन्दू समाज का विखंडन: जाति, राजनीति और राष्ट्रीय संकट

हिन्दू समाज का विखंडन: जाति, राजनीति और राष्ट्रीय संकट

लेखक: डॉ. राकेश दत्त मिश्र

भारतवर्ष का इतिहास गौरवशाली है। यह वह भूमि है जिसने दुनिया को वेदों का ज्ञान, योग का विज्ञान और गीता का उपदेश दिया। यह वह भूमि है जिसने “अहिंसा परमो धर्मः” का संदेश दिया। हमारी सभ्यता का मूल आधार सनातन धर्म है, जो सहिष्णुता, समरसता और एकता का प्रतीक है।

किन्तु आज वही समाज, जो संपूर्ण जगत को एक परिवार मानता था, स्वयं जातियों और उपजातियों में बिखर चुका है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा था:
“चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।”
अर्थात् – चार वर्णों की रचना गुण और कर्म के अनुसार मैंने की है।

यह सिद्धांत स्पष्ट करता है कि वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित नहीं थी, बल्कि व्यक्ति की योग्यता और कर्म पर आधारित थी। ब्राह्मण ज्ञान का प्रतीक, क्षत्रिय पराक्रम का, वैश्य संपन्नता का और शूद्र सेवा का।

लेकिन आज की हकीकत यह है कि हिन्दू समाज चार वर्णों से आगे बढ़कर 40,000 से अधिक जातियों में बंट चुका है। यह विभाजन न केवल समाज को कमजोर कर रहा है, बल्कि राष्ट्र की एकता पर भी गहरा संकट खड़ा कर रहा है।

हर चुनाव जातिवाद का उत्सव बन गया है। जाति के नाम पर वोट मांगे जाते हैं। जाति के नाम पर नारे लगाए जाते हैं। नेता और जाति ठेकेदार हिन्दू समाज को टुकड़ों में बाँटते हैं।
सवाल यह है – क्या इस मानसिकता के साथ भारत सुरक्षित रह सकता है? क्या यह हिंदू धर्म की आत्मा के खिलाफ नहीं है?

वर्ण व्यवस्था – समरसता का आधार

वर्ण व्यवस्था का उद्देश्य समाज को विभाजित करना नहीं, बल्कि संगठित करना था। यह सामाजिक श्रम विभाजन था, जिसमें सभी वर्ग समान सम्मान के अधिकारी थे।

  • ब्राह्मण – ज्ञान और धर्माचार्य।
  • क्षत्रिय – सुरक्षा और शासन।
  • वैश्य – व्यापार और अर्थव्यवस्था।
  • शूद्र – समाज की सेवा और आधार।

वर्ण का आधार था – गुण, न कि जन्म।
महाभारत और वेदों में कई उदाहरण हैं, जहाँ क्षत्रिय ब्राह्मण बनते हैं और ब्राह्मण क्षत्रिय।
महर्षि वाल्मीकि, महर्षि वेदव्यास, ऋषि विश्वामित्र – इनका जीवन इसका प्रमाण है।
समाज का हर व्यक्ति जरूरी था।
किसी भी वर्ण को हीन या श्रेष्ठ मानने की परंपरा वैदिक काल में नहीं थी।
द्वितीय खंड: जातिवाद की उत्पत्ति – पतन की शुरुआत
समय के साथ जब नैतिकता का ह्रास हुआ, तब वर्ण जन्म आधारित होने लगा। यही से जातिवाद की शुरुआत हुई।

प्रमुख कारण:

  • सत्ता और शक्ति के लिए संघर्ष।
  • धार्मिक शिक्षा का पतन।

विदेशी आक्रमणों के समय सामाजिक असुरक्षा।

फिर भी, हिंदू समाज में एकता बनी रही क्योंकि धर्म और संस्कृति मजबूत थी। संकट तब आया जब विदेशी शासक आए।

ब्रिटिश षड्यंत्र – फूट डालो और राज करो


अंग्रेजों ने हिन्दू समाज को तोड़ने के लिए जाति को एक राजनीतिक हथियार बनाया।
महत्वपूर्ण घटनाएं:

  • 1871 – पहली जातिगत जनगणना।
  • जाति प्रमाणपत्र की शुरुआत।
  • जाति आधारित आरक्षण का विचार अंग्रेजों ने ही बोया।
  • जातिगत संगठनों को प्रोत्साहन।

लॉर्ड कर्जन ने कहा था:
“यदि भारत को हमेशा के लिए गुलाम बनाना है, तो हिन्दू समाज को जातियों में बाँटो।”

परिणाम:

  • हिंदू समाज अपनी मूल पहचान “हिंदू” से हटकर जातियों में बंट गया।
  • आपसी विश्वास खत्म हुआ।
  • जाति राजनीति का आधार बन गई।

आज़ाद भारत में जातिवाद का पुनर्जन्म

आजादी के बाद उम्मीद थी कि जातिवाद खत्म होगा। पर हुआ उल्टा।
क्यों?

  • नेताओं ने अंग्रेजों की नीति अपनाई।
  • आरक्षण की राजनीति ने जातिवाद को स्थायी कर दिया।
  • चुनाव पूरी तरह जाति समीकरण पर निर्भर होने लगे।
  • आज कोई भी चुनाव जाति के बिना नहीं लड़ा जाता।
  • नेताओं के लिए जाति वोट का हथियार है।
  • वे हिन्दू एकता से डरते हैं क्योंकि एकजुट हिन्दू उन्हें बेनकाब कर देंगे।

जातिवाद के दुष्परिणाम

1. राष्ट्रीय एकता पर संकट

जब हमारी पहचान जाति हो जाती है, तब राष्ट्र और धर्म पीछे छूट जाते हैं।
2. विधर्मियों को लाभ

जब हिन्दू बंटे हैं, तब दूसरे धर्म एकजुट होकर ताकतवर बनते हैं।
3. राजनीतिक शोषण

जाति के नाम पर सत्ता हासिल करने वाले नेता सत्ता में आने के बाद केवल अपना फायदा करते हैं।
4. सामाजिक तनाव

आरक्षण पर दंगे, जातिगत हिंसा, परस्पर द्वेष – यह सब समाज को खोखला कर रहा है।

मानसिकता का संकट

आज अगर किसी हिन्दू से पूछिए –
आप कौन हैं?
उत्तर मिलेगा – “मैं यादव हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ, मैं जाट हूँ।”
कोई नहीं कहेगा – “मैं हिन्दू हूँ।”
यही मानसिकता हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है।

समसामयिक उदाहरण और केस स्टडी

  • आरक्षण की राजनीति – हर चुनाव में आरक्षण का दांव चलता है।
  • उत्तर प्रदेश और बिहार के चुनाव – जाति समीकरण के बिना टिकट नहीं मिलता।
  • जातिगत दंगे – हर साल छोटे-बड़े दंगे जाति के नाम पर होते हैं।

समाधान – हिन्दू एकता का मार्ग

हमें यह समझना होगा कि जातिवाद का अंत करना ही राष्ट्र को बचाना है।
25 ठोस उपाय:

  • अपनी पहचान हिन्दू के रूप में स्थापित करें।
  • धर्म शिक्षा को अनिवार्य बनाएं।
  • जातिगत संगठनों का बहिष्कार करें।
  • मंदिरों को हिन्दू एकता का केंद्र बनाएं।
  • जातिगत जनगणना का विरोध करें।
  • सोशल मीडिया पर हिन्दू एकता का संदेश फैलाएं।
  • आरक्षण नीति की समीक्षा करें।
  • राजनीति में जातिवाद पर रोक लगे।
  • विवाह में जाति की जगह समान संस्कार पर जोर दें।
  • गुरुकुल और वेद विद्यालयों को पुनर्जीवित करें।
  • धर्मगुरुओं को एकता का संदेश देना चाहिए।
  • सामूहिक उत्सवों में सबको जोड़ें।
  • जाति नाम पर राजनीति करने वालों का बहिष्कार करें।
  • शिक्षा में समान अवसर सुनिश्चित करें।
  • हिन्दू संगठनों में जाति का प्रश्न उठाना बंद करें।
  • गाँव-गाँव में हिन्दू एकता अभियान।
  • मीडिया के माध्यम से जागरूकता।
  • हिन्दू इतिहास का गौरव बच्चों को पढ़ाएं।
  • जातिगत भेदभाव करने वालों को सामाजिक दंड दें।
  • राष्ट्रवाद को हिन्दू धर्म से जोड़ें।

  • हर हिन्दू त्योहार को एकता का प्रतीक बनाएं।
  • राजनीति में धर्मनिरपेक्षता का सही अर्थ समझाएं।
  • विदेशों में बसे हिन्दुओं को इस अभियान में जोड़ें।
  • फिल्मों और वेब सीरीज में जाति विरोधी प्रचार का विरोध करें।
  • हर हिन्दू संगठन का नारा होना चाहिए – “हिन्दू एकता – राष्ट्र की शक्ति।”

हमें आपस में इसे अपनाना होगा और कहना होगा 

“जाति तोड़े, हिन्दू जोड़े।”

“पहचान एक – हम सब हिन्दू।”

“धर्म हमारी शक्ति, एकता हमारी पहचान।”

“जाति छोड़ो, राष्ट्र जोड़ो।”

हिन्दू समाज को आज सबसे बड़ा खतरा बाहर से नहीं, बल्कि भीतर से है – जातिवाद से।
यदि हम समय रहते नहीं जागे, तो हमारी संस्कृति और राष्ट्र दोनों खतरे में पड़ जाएंगे।
हमारी पहचान न यादव है, न ब्राह्मण, न जाट, न कुर्मी।
हमारी पहचान हिन्दू है। यही हमारी शक्ति है, यही राष्ट्र की सुरक्षा है।

आइए, आज हम संकल्प लें –
“हम पहले हिन्दू हैं, बाकी सब बाद में।”
यही भारत की आत्मा है।

लेखक: डॉ. राकेश दत्त मिश्र



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