"सबको खुश रखना असम्भव है – आत्मबोध की ओर एक यात्रा"
लेखक: डॉ. राकेश दत्त मिश्र
“किसी भी व्यक्ति के लिए यह सम्भव नहीं कि वो सबको खुश रख सके, जब स्वयं परमात्मा अपने अवतारों में लोगों को संतुष्ट नहीं रख सके तो मनुष्य की क्या औकात है।”
यह वाक्य मात्र एक विचार नहीं, बल्कि जीवन का कटु सत्य है, जिसे स्वीकार करने में मनुष्य को समय लगता है। यह सत्य न केवल मानसिक शांति की ओर मार्ग प्रशस्त करता है, बल्कि सामाजिक जीवन में निराशा से उबारने वाला दिव्य दर्शन है।
हमारे जीवन में सबसे बड़ा बोझ दूसरों की अपेक्षाओं को ढोने का होता है। इस लेख में हम विस्तार से चर्चा करेंगे कि क्यों किसी को खुश रखना असम्भव है, परमात्मा के अवतारों के अनुभवों से क्या सीख मिलती है, और कैसे इस सत्य को आत्मसात कर हम जीवन को शांतिपूर्ण, गरिमामय और सार्थक बना सकते हैं।
मानव समाज एक जटिल व्यवस्था है जहाँ हर व्यक्ति अपने दृष्टिकोण, भावनाओं, संस्कृति और अनुभवों के आधार पर दुनिया को देखता है। यही विविधता समाज को रंगीन बनाती है, परंतु यहीं से संघर्ष भी जन्म लेता है।
हर व्यक्ति अपने-अपने नजरिए से हमें देखता है और हमें उसी फ्रेम में ढालना चाहता है। अगर हम एक बेटे हैं, तो माँ-बाप की अपेक्षाएँ हैं; अगर पति हैं, तो पत्नी की; अगर शिक्षक हैं, तो छात्रों की; अगर नेता हैं, तो जनता की। यह अपेक्षाओं का बोझ कभी समाप्त नहीं होता।
लेकिन क्या यह सम्भव है कि हम हर किसी की अपेक्षा पर खरे उतरें? नहीं। क्योंकि एक की प्रसन्नता अक्सर दूसरे के असंतोष का कारण बन जाती है। यही वह बिंदु है जहाँ हमें समझना होगा कि सबको खुश रखना न तो सम्भव है और न ही आवश्यक।
हमारा सनातन इतिहास और पुराण साक्षी हैं कि जब स्वयं भगवान ने पृथ्वी पर अवतार लिया, तब भी वे सभी को प्रसन्न नहीं कर सके। आइए कुछ उदाहरणों से इस बात को समझें:
1. भगवान श्रीराम:
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने धर्म की रक्षा के लिए सीता माता को त्यागा। उन्होंने एक सामान्य धोबी की टिप्पणी को गंभीरता से लिया, परंतु इसके लिए उन्हें आलोचना का सामना करना पड़ा। कई लोग आज भी यह प्रश्न करते हैं कि क्या एक आदर्श राजा को ऐसा निर्णय लेना चाहिए था?
2. भगवान श्रीकृष्ण:
लीलाओं के अधिपति श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध में पांडवों का साथ दिया। परंतु क्या यह निर्णय सभी को स्वीकार्य था? नहीं। दुर्योधन ने उन्हें छलिया कहा, कर्ण ने उन्हें पक्षपाती कहा, यहाँ तक कि गांधारी ने भी उन्हें शाप दिया।
3. भगवान बुद्ध:
गृह त्याग कर ज्ञान की खोज में निकले सिद्धार्थ जब बुद्ध बने, तब भी उनके निर्णय की आलोचना की गई। उनके पिता, पत्नी और पुत्र को पीड़ा हुई। क्या उनका कार्य महान नहीं था? निस्संदेह था, फिर भी उन्हें सबका समर्थन नहीं मिला।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि जब ईश्वर के अवतार सभी को संतुष्ट नहीं कर सके, तो एक साधारण मनुष्य कैसे कर सकता है?
मनुष्य का स्वभाव है कि वह सबको खुश करना चाहता है। यह प्रवृत्ति प्रारंभ में विनम्रता, सहृदयता और सामाजिकता का प्रतीक लगती है, परंतु धीरे-धीरे यह आत्मविस्मृति का रूप ले लेती है। हम अपनी पहचान, अपने विचार, अपनी रुचियाँ – सब कुछ दूसरों को खुश करने के प्रयास में खो देते हैं।
कई बार हम झूठ बोलते हैं, स्वयं को दबाते हैं, अपनी आवश्यकताओं को कुचलते हैं – सिर्फ इसलिए कि सामने वाला व्यक्ति हमें “अच्छा” कहे। लेकिन क्या यह “अच्छा” कहलाना स्थायी होता है? नहीं।
एक बार एक सज्जन व्यक्ति ने कहा था – “अगर आप सबको खुश करना चाहते हैं, तो आइसक्रीम बेचिए, विचार नहीं।” क्योंकि विचार, सिद्धांत और सत्य सबको एक जैसे प्रिय नहीं होते।
जब हम यह स्वीकार कर लेते हैं कि सबको खुश रखना असम्भव है, तभी आत्मबोध का बीज अंकुरित होता है। हम समझने लगते हैं कि:
- हर व्यक्ति अपनी मानसिकता, अनुभव और आशंका के दायरे से सोचता है।
- किसी की असहमति का मतलब यह नहीं कि हम गलत हैं।
- किसी की आलोचना का अर्थ यह नहीं कि हमारा मूल्य कम है।
यह आत्मबोध हमें अपनी पहचान के प्रति सजग बनाता है। हम अपने मूल्यों पर अडिग रहकर भी विनम्र रह सकते हैं। हम असहमति के बावजूद संवाद कर सकते हैं। हम आलोचना से विचलित हुए बिना सृजन कर सकते हैं।
एक बार एक साधु जंगल में तपस्या कर रहे थे। एक राहगीर ने उन्हें देखकर कहा, “आप जैसे साधु ही समाज से भागते हैं।” दूसरे राहगीर ने कहा, “आप जैसे संत ही समाज का कल्याण करते हैं।” दोनों ही बातें एक ही व्यक्ति के लिए थीं, पर दृष्टिकोण भिन्न थे।
यह जीवन का यथार्थ है – हम जैसा भी कार्य करें, हर दृष्टिकोण से कोई-न-कोई असंतुष्ट रहेगा। कोई हमें स्वार्थी कहेगा, कोई परोपकारी। कोई हमें धर्मनिष्ठ कहेगा, कोई ढोंगी। प्रश्न यह नहीं कि लोग क्या कह रहे हैं, प्रश्न यह है कि हम स्वयं क्या जानते हैं, क्या मानते हैं, और क्या कर रहे हैं।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, "सत्य को सौ लोगों के समर्थन की आवश्यकता नहीं। एक अकेला सत्य, सौ झूठों पर भारी होता है।"
महात्मा गांधी ने जब सत्याग्रह प्रारंभ किया, तो उन्हें भी अपने निकटतम सहयोगियों तक से विरोध सहना पड़ा।
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने जब दलितों के अधिकारों की बात की, तो उन्हें रूढ़िवादी समाज से अपार विरोध मिला, लेकिन उन्होंने न्याय की राह नहीं छोड़ी।
ये उदाहरण बताते हैं कि जो व्यक्ति समाज में कुछ नया, क्रांतिकारी या सत्यनिष्ठ करने का प्रयास करता है, उसे आलोचना, असंतोष और अस्वीकृति का सामना करना ही पड़ता है।
अब प्रश्न उठता है कि यदि सबको खुश नहीं रखा जा सकता, तो व्यवहारिक जीवन में कैसे जिया जाए? उत्तर है – संतुलन और विवेक से।
आत्मचिंतन करें: किसी आलोचना या असहमति को तुरंत व्यक्तिगत न लें। विचार करें कि क्या उसमें कोई सच्चाई है?
सीमा निर्धारित करें: अपनी ऊर्जा, समय और मानसिक शांति की एक मर्यादा होनी चाहिए। हर किसी को जवाब देना आवश्यक नहीं।
सकारात्मक आलोचना को स्वीकारें: हर असहमति गलत नहीं होती। किसी सज्जन व्यक्ति की आलोचना हमारे सुधार का मार्ग बन सकती है।
स्वयं को प्राथमिकता दें: आत्मसम्मान और आत्मस्वीकृति ही सच्ची शांति की कुंजी है।
जब हम यह स्वीकार करते हैं कि सबको प्रसन्न नहीं किया जा सकता, तभी हम जीवन की सबसे बड़ी स्वतंत्रता प्राप्त करते हैं – स्वयं बनने की स्वतंत्रता।
इस स्वतंत्रता में न अहंकार है, न कटुता – केवल आत्मज्ञान है। तब हम हर व्यक्ति को उनकी दृष्टि से देख पाते हैं, हर आलोचना को एक विचार की तरह स्वीकार करते हैं, और अपने पथ पर शांति से चलते रहते हैं।
ईश्वर भी जब अपने अवतारों में आलोचना से नहीं बच सके, तो मनुष्य के लिए यह अपेक्षा ही भ्रम है कि वह सबको संतुष्ट रख सकेगा। हमें केवल यह देखना है कि हम अपने कर्तव्य, धर्म और आत्मा के पथ पर निष्ठावान हैं या नहीं।
अंत में हम सिर्फ इतना ही कहना चाहेंगे :-
जीवन का उद्देश्य सबको खुश करना नहीं, बल्कि सत्य और कर्तव्य के मार्ग पर चलते हुए आत्मिक संतोष प्राप्त करना है। अगर हमारे विचार, कार्य और आचरण सच्चे हैं, तो चाहे पूरी दुनिया विरोध करे, हमारे अंतःकरण में शांति बनी रहती है।
अतः, न सबको खुश करने का प्रयास करें, न आलोचना से डरें – बस स्वयं को जानें, आत्मा की आवाज़ सुनें और निस्वार्थ पथ पर आगे बढ़ें। यही मुक्ति है, यही मोक्ष है।
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