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‌‌ "मुनीम की बुद्धिमता"

‌‌ "मुनीम की बुद्धिमता"

प्राचीन समय की बात है। टिकारी राज में तपेश्वर शर्मा नामक न्यायप्रिय राजा का शासन था। वे एक नेकदिल इंसान थे। प्रजा उनकी न्यायप्रियता का गुणगान करती थी। वे अपनी प्रजा से पुत्रवत् स्नेह रखते थे। प्रजा के दुःख-दर्द की जानकारी वे गुप्तचरों से प्राप्त करते थे। प्रजा के दुःख - दर्द का निवारण वे स्वयं करते थे। प्रजा इनकी पूजा करती थी।

राजा के दरबार में सुरेन्द्र शर्मा नाम का व्यक्ति मुनीम का काम करता था। राजा के लेखा - जोखा की सारी कार्यवाही वही करता था। वह दरिद्र किन्तु बड़ा ही विद्वान और ईमानदार था। राजा एवं प्रजा दोनों ही उसकी विद्वता का लोहा मानते थे। जटिल से जटिल समस्या का समाधान वह पलभर में कर देता था। यही कारण था कि वह राजा के करीबी कर्मचारियों में से एक था।

मुनीम की पत्नी प्रतिदिन खाना लेकर राजदरबार में आती थी। मुनीम को खाना खिलाकर वह वापस चली जाती थी। एक दिन की बात है। राजा अपने दरबार में उपस्थित थे उसी समय मुनीम की पत्नी खाना लेकर हाजिर हुई। खाना खाने से पहले मुनीम ने अपनी पत्नी से पूछा , " क्या तुमने कर्ज चुकाया? क्या तुमने कर्ज दे दिया? क्या तुमने पानी में फेंक दिया?" इतना सुनने के बाद उसकी पत्नी ने कहा , "हां,मैंने कर्ज चुका दिया, मैंने कर्ज दे दिया और पानी में भी फेंक दिया। "

राजा इन दोनों की बातों को बड़े ध्यान से सुन रहा था। राजा उनकी बातों को सुनकर चौंक गया। राजा का चौंकना स्वाभाविक था क्योंकि मात्र नब्बे रूपये की तनख्वाह में मुनीम कर्ज भी चुकाता है, कर्ज भी लगाता है और पानी में भी फेंकता है। इसके बावजूद भी वह हँसी-खुशी जीवन व्यतीत करता है। राजा सोंचने लगा कि इतनी सम्पत्ति रहने के बावजूद भी मैं एक पैसा व्यर्थ खर्च नहीं करता हूँ। अवश्य ही मुनीम कुछ गोरखधंधा करता है। कुछ दिनों तक राजा अपने गुप्तचरों के माध्यम से यह पता लगाने की कोशिश किया कि आखिर मुनीम के पास धन आता कहाँ से है। काफी कोशिशों के बाद भी राजा को इसमें सफलता नहीं मिली। निराश होकर राजा ने अपनी मंत्रियों की बैठक बुलवायी। मंत्रियों से अपनी समस्या का समाधान पूछा। सभी ने यही राय दी कि दरबार में बुलाकर उससे ही सारी बातें पूछी जाय ।

राजा ने मुनीम को दरबार में पेश होने का आदेश दिया। राजा के आदेशानुसार मुनीम दरबार में पेश हुआ। राजा ने उससे पूछा कि किस तरह तुम मात्र नब्बे रुपये की तनख्वाह में कर्ज भी चुकाते हो, कर्ज भी लगाते हो और पानी में भी फेंक देते हो, फिर भी अपने परिवार का भरण-पोषण तुम आसानी से कर लेते हो। मुनीम ने कहा , " हुजूर मैं आपके द्वारा दिए गए तनख्वाह से ही सबकुछ कर लेता हूँ।" राजा उसकी बात को सुनकर भड़क गए। वे बोले कि मेरे पास इतनी सम्पत्ति है फिर भी मैं व्यर्थ में धन नहीं खर्च करता हूँ और एक तुम हो कि धन को पानी में फेंकते हो। मुझे शक है कि तुम मेरे हिसाब-किताब में हेरा-फेरी करते हो। राजा के बेबुनियाद आरोप से मुनीम तिलमिला उठा। वह पुनः बोला , " महाराज मैं अपने बाल-बच्चों की कसम खाकर कहता हूँ कि मैं चोर नहीं हूँ। आपके द्वारा दिए गए तनख्वाह से ही गुजारा करता हूँ। इतना सुनने के बाद राजा ने कहा कि ठीक है तुम यह बताओ कि किस तरह अपने तनख्वाह को खर्च करते हो।

राजा की बात सुनकर वह थोड़ा मुस्कराया और बोला , " महाराज बीस रूपये मैं कर्ज चुकाता हूँ अर्थात् अपने बुजुर्ग माता-पिता को देता हूँ क्योंकि उनका मेरे ऊपर ऋण है। बीस रूपये मैं कर्ज लगाता हूँ अर्थात् अपने बच्चों को देता हूँ क्योंकि अभी कर्ज लगाऊँगा तभी बुढ़ापे में पाऊँगा। बीस रूपये पानी में फेंकता हूं अर्थात् बहन की शादी के लिए जमा करता हूँ। बहन की शादी में खर्च किए गए रूपये वापस नहीं मिलेंगे इसलिए इसे पानी में फेंकने की बात कहता हूँ। शेष तीस रूपये से किसी तरह अपने परिवार का भरण-पोषण करता हूँ।

राजा मुनीम की बुद्धिमत्तापूर्ण बातें सुनकर काफी प्रसन्न हुए। उसी समय उन्होंने मुनीन को अपने राज्य का महामंत्री बनाने की घोषणा की। यह कटु सत्य है कि विद्वता के बल पर आदमी कठिन से कठिन कार्य को भी सरल बना देता है।

➡️ सुरेन्द्र कुमार रंजन

(स्वरचित एवं अप्रकाशित लघुकथा)
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