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प्रयाण गीत

प्रयाण गीत

मार्कण्डेय शारदेय :
पुकार मातृभूमि की सुनो जगो जगा रही,
पुनः स्वरक्षणार्थ ही प्रयाण गीत गा रही।
शिवा–प्रताप–बाल–लाल–पालकीर्ति-केतुओ,
समस्त दुःख–अब्धि हेतु भव्य दिव्य सेतुओ,
स्वकर्म बोध दे सदा स्वकर्म में लगा रही।
पुनः स्वरक्षणार्थ ही प्रयाण गीत गा रही॥
पसार आँख देख लो न सुप्तिकाल है अभी,
बनो न आलसी चलो सुवीर रुद्र हो सभी,
अतीत की कहानियाँ जवानियाँ जवानियाँ लुटा रहीं।
पुनः स्वरक्षणार्थ ही प्रयाण गीत गा रही॥
कुनीतियाँ कुरीतियाँ प्रसार पा रहीं यहाँ,
निशाचरी निसर्ग–अट्टहास है यहाँ-वहाँ,
विपत्ति–नग्न नर्तकी स्वतन्त्रता जता रही।
पुनः स्वरक्षणार्थ ही प्रयाण गीत गा रही॥
कुकर्म–मग्न लोग हैं कभी न लाज आ रही,
सुबन्धु-भावना–लता गले न है लगा रही,
मनुष्य को मनुष्यता महान शत्रु पा रही।
पुनः स्वरक्षणार्थ ही प्रयाण गीत गा रही।।
गढ़ो नया समाज स्वच्छ विश्व शान्त पूत हो,
समग्र मान्य पन्थ का सुविज्ञ अग्रदूत हो,
चलो निदाघ–सीख ले गभस्तियाँ सिखा रहीं।
पुनः स्वरक्षणार्थ ही प्रयाण गीत गा रही॥
न काम गो–प्रवृत्ति का, मृगेंद्र –वृत्तियाँ गहो,
भविष्य से कहो कि जागरूकता लिये रहो,
यही सुधर्म आज का सुनीतियाँ पढ़ा रहीं।
पुनः स्वरक्षणार्थ ही प्रयाण गीत गा रही॥


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