"सबसे बड़ा महात्मा"
➡️ सुरेन्द्र कुमार रंजन
प्राचीन काल की बात है। रामनगर में सूबेदार सिंह नामक राजा का शासन था। राजा अपनी सत्यवादिता कर्तव्यनिष्ठता, परोपकारिता और न्यायप्रियता के लिए चारों और मशहूर थे। राज्य की प्रजा इनके शासनकाल में काफी खुशहाल थी। प्रजा अपने राजा को भगवान के समान पूजती थी। भगवान के पुण्य-प्रताप से राजा को चार पुत्र प्राप्त हुए। चारों पुत्र अपने पिता के समान ही योग्य और पराक्रमी थे। राजा को अपने पुत्र पर काफी गर्व था।
राजा जब अपने बुढ़ापे के नजदीक पहुँचने लगे तो उन्हें निर्णय लेने में कठिनाई होने लगी कि आखिर किसे राज्य का उत्तराधिकारी बनाया जाय, क्योंकि उन्हें अपने पुत्रों की योग्यता पर कोई संदेह नहीं था। आखिरकार राजा ने अपने पुत्रों की योग्यता को परखने का निश्चय किया।
राजा ने अपने चारों पुत्रों को अपने कक्ष में बुलाया और कहा - "बेटा, मैं अब वृद्ध हो चला हूँ और राज्य के संचालन में सक्षम नहीं हूँ। मैं चाहता हूँ कि इस राज्य को एक योग्य शासक मिले। मुझे तुम्हारी योग्यता पर कोई संदेह नहीं है। मैं तुमलोगों को एक कार्य सौंप रहा हूँ। जो भी इस कार्य को पूरा करेगा उसी को राज्य का शासक नियुक्त किया जाएगा। तुम लोगों में से जो भी ऐसे महात्मा को तलाश करेगा, जो सत्यवादी, परोपकारी ,न्यायप्रिय और कर्तव्यनिष्ठ हो, उसे राज्य का उत्तराधिकारी बनाया जाएगा।" पिता की बात सुनकर चारों पुत्र अपनी यात्रा पर निकल पड़े।
कुछ दिन के उपरांत राजा का पहला पुत्र एक मठाधीश को लेकर लौटा। उसने पिता से कहा कि इनके गुणों की चर्चा सर्वत्र है। मठ में पूजा-पाठ का संचालन करते हैं। अपनी ज्ञान रूपी प्रसाद को निःशुल्क बाँटते हैं। सभी जीवों पर दया करते हैं। इसलिए इनसे बड़ा कोई दूसरा महात्मा नहीं हो सकता। राजा ने मठाधीश का यथोचित सत्कार किया। ढेर सारे उपहार देकर मठाधीश को विदा किया।
कुछ दिन के उपरांत राजा का दूसरा पुत्र एक वैरागी को लेकर लौटा। उसने पिता से कहा कि इन्होंने अपना सबकुछ त्याग दिया है और वैराग्य जैसे कठिन रास्ते को चुना है। इन्हें किसी चीज का प्रलोभन नहीं है। वे किसी का भी बुरा नहीं सोंचते । वे हमेशा भगवान के ख्यालों में खोये रहते हैं। इनसे बड़ा कोई दूसरा महात्मा नहीं हो सकता। राजा ने वैरागी का भी यथोचित सत्कार किया और ढेर सारा धन देकर विदा किया।
कुछ दिन के उपरांत राजा का तीसरा पुत्र एक दानवीर सेठ के साथ लौटा। उसने पिता से कहा कि सेठ जी एक बड़े धर्मात्मा हैं। गरीबों को दान देना, अतिथि का सत्कार करना एवं मंदिरों में जाकर पूजा करना ही इनकी दिनचर्या है। इसलिए इनसे बड़ा कोई दूसरा महात्मा नहीं हो सकता। राजा ने सेठ का भी यथोचित सत्कार किया और ढेर सारा उपहार देकर विदा किया।
कुछ दिन के उपरांत राजा का चौथा पुत्र एक किसान के साथ लौटा। उसने पिता से कहा कि ये ना कोई बड़े धर्मात्मा है और ना ही महात्मा। वे एक साधारण किसान हैं। इनकी जिन्दगी ऋणमुक्त है। अपनी खेती - बाड़ी करके जीवन-यापन करते हैं। अतिथियों को भगवान के समान पूज्य मानकर सेवा करते हैं। भूखों को नित्य यथासंभव भोजन कराते हैं। राहगीरों के लिए फलों का एक बगीचा भी लगवाया है जिसमें एक कुआं भी है। धन का संग्रह करना पाप मानते हैं। गाँव में किसी से मतभेद नहीं है। सभी सम्प्रदाय के लोगों से भाईचारा है। वे सदा सत्य बोलते हैं। एक बार एक लाचार व्यक्ति सड़क पर पड़ा कराह रहा था लेकिन कोई भी उसकी मदद करने को तैयार नहीं था। जैसे ही इनकी नजर उसपर पड़ी वैसे ही उसे कन्धे पर उठाकर वैद्य के पास ले गए और उसका इलाज करवाया। इनके अतिरिक्त मुझे कोई दूसरा महात्मा नहीं मिला। राजा ने किसान का भी यथोचित सत्कार किया और ढेर सारा उपहार देकर विदा किया।
राजा ने चारों पुत्रों को एक साथ अपने कक्ष में बुलाया और कहा - " बेटा सबसे बड़ा महात्मा वही होता है जो ऋणमुक्त हो, परोपकारी हो, निर्लोभी हो, कर्मवादी हो, कर्तव्यनिष्ठ हो, दयालु हो, मिलनसार हो और जो भूखे-प्यासे को अन्न-जल ग्रहण करावें । मठाधीश, वैरागी और सेठ में इन सभी गुणों का अभाव था। कहीं न कहीं इनके मन में स्वार्थ, मोह और लोभ विद्यमान था। लेकिन किसान में करीब-करीब सभी गुण विद्यमान थे। इसलिए किसान ही सबसे बड़ा महात्मा हुआ।
राजा के शर्त के अनुसार छोटा पुत्र राज्य का उत्तराधिकारी घोषित हुआ। बड़े ही धूमधाम से उसका राज्याभिषेक हुआ। राज्याभिषेक के उपरांत छोटा पुत्र राजा बना और वे तपस्या करने के लिए जंगल में चले गए।
➡️ सुरेन्द्र कुमार रंजन
(स्वरचित एवं अप्रकाशित लघुकथा)
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