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पाप का लेखा

पाप का लेखा

रचना :------
डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"
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राजा ने लंगर सजवाया, ब्राह्मण भोजन को बुलाए।
रसोइया शुद्ध खाना पकाए, अग्नि तले पकवान बनाए॥


उड़ती चील गगन से आई, ले सर्प विषधर जीव जिया।
रक्षा में फन फैलाकर वह, सर्प जहर तब चीर दिया॥


बूँद गिरी भोजन में जाकर, विषमय हो गया सारा अन्न।
अंजाने पाप हुआ ऐसा, मिटा गया सब पुण्य-कर्म॥


ब्राह्मण आए थे भोजन को, खा विषभोज हो गए वे मृत।
शोकाकुल हो गया सम्राट, मन में भारी पीड़ा तित॥


यमलोक पहुँची वह घटना, न्याय कठिन अब बन पड़ा।
किस पर दोष लगाया जाए, यमराज स्वयं भी रह अड़ा॥


न राजा दोषी बन पाया, न वह रसोइया ज्ञानी।
न चील, न सर्प अभिप्रेत, फिर भी मृत्युकथा बनी वाणी॥


कुछ दिन बाद ब्राह्मण आए, महल जाने का पथ पूछा फिर।
राह दिखाती स्त्री ने बोला — राजा है हत्यारा अधम फिर ॥


तब यमराज निर्णय ले बोले — अब हुआ न्याय यही बतलाए,
जिसने पाप कथा में रस पाया, पाप उसी तक सीधा जाए॥


दूजे के दोष कहे जो नर, मन में पाकर सुख भारी,
बिन पाप किए वह भी बनता, पापों का अधिकारी॥


बुराई में जो रस पाता है, पाप वही अपनाता है।
कहना है यदि सत्य किसी का, तो भाव निर्मल लाता है।
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