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"हर मानव में भगवान् देखता हूँ"

"हर मानव में भगवान् देखता हूँ"

हर मानव में भगवान् देखता हूँ—
किसी सोने जड़े सिंहासन पर नहीं,
न ही रजत-दीप्त मंदिर की मूर्तियों में,
वरन् उस निस्तब्ध हृदयगुहा में,
जहाँ करुणा का अव्यक्त स्रोत प्रवाहित है।


हर दृष्टि में छिपी है ज्वाला,
अदृश्य किंतु चिरन्तन—
मानो स्वयं अग्निदेव की चिंगारी
नेत्र-मणियों में स्थिर हो गई हो।


हर स्वर में गूँजता है हाला—
यह हाला मदिरा नहीं,
बल्कि वह अमृत-संगीत है
जो अन्तर्यामी के प्राण से टपककर
शब्दों में गहराता चला जाता है।


न सोने के सिंहासन पर,
न किसी मन्दिर की रेखा में;
मानव-हृदय की उष्ण धड़कनों में ही
जग का देव-दीप देखा जाता है।


भिखारी का थरथराता हाथ,
शिशु की निस्पृह मुस्कान,
ज्ञानी की गम्भीर वाणी,
अज्ञानी का भोला अभिमान—
सबमें कहीं न कहीं छिपा है
वही अमृत-स्रोत महान,
जो वेदों ने ऋचाओं में गाया,
जो उपनिषदों ने ब्रह्म कहा।


इसलिए—
मैं जब किसी मनुष्य की आँखों में देखता हूँ,
तो केवल मनुष्य नहीं दिखता,
बल्कि एक विराट् प्रतिध्वनि,
एक अदृश्य ज्योति,
एक अनन्त विधान।


हर मानव में देखता हूँ
ईश्वर का विधान।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"
✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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