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“अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना : अवतार परंपरा से आधुनिक शासन तक”

“अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना : अवतार परंपरा से आधुनिक शासन तक”


✍️ लेखक – डॉ. राकेश दत्त मिश्र

भारतवर्ष की आत्मा धर्म है। यदि धर्म की रक्षा होगी तो राष्ट्र सुरक्षित रहेगा, और यदि धर्म की उपेक्षा होगी तो अराजकता और पतन निश्चित है। भारतीय परंपरा में धर्म केवल आस्था या पूजा-पद्धति तक सीमित नहीं, बल्कि वह जीवन का संपूर्ण मार्गदर्शन है। यही कारण है कि जब-जब अधर्म का प्रकोप बढ़ा, तब-तब ईश्वर ने अवतार लेकर अधर्म का नाश किया और धर्म की स्थापना की।

श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण का उद्घोष है—


“परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥”

यानी साधुजनों की रक्षा, दुष्टों का विनाश और धर्म की स्थापना के लिए मैं युग-युग में अवतार लेता हूँ। यही अवतार परंपरा का मूल है।

आज भी यह प्रश्न उतना ही प्रासंगिक है जितना त्रेता या द्वापर में था—क्या वर्तमान शासक वर्ग धर्म की रक्षा कर रहा है या अधर्म का पोषण कर रहा है?

1. अवतार परंपरा : अधर्म नाश का शाश्वत सिद्धांत

(क) श्री  रामावतार – मर्यादा पुरुषोत्तम का संदेश

त्रेता युग में जब रावण जैसे राक्षसों ने अत्याचार और अधर्म की सीमाएँ लांघ दीं, तब भगवान विष्णु ने राम के रूप में अवतार लिया।

राम ने केवल रावण का वध ही नहीं किया, बल्कि रामराज्य की स्थापना की जो आदर्श शासन का प्रतीक है।

रामराज्य में प्रजा सुखी थी, अन्याय का स्थान नहीं था और धर्म सर्वोपरि था।

संदेश यही है कि शासक वर्ग यदि धर्म की रक्षा करेगा तभी प्रजा सुखी रह सकेगी।

(ख) श्री कृष्णावतार – धर्मयुद्ध की आवश्यकता

द्वापर युग में दुर्योधन और कौरव अधर्म के प्रतीक थे। अर्जुन जैसे महायोद्धा भी युद्ध से कतराने लगे। तब श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश दिया—

धर्म की रक्षा के लिए युद्ध आवश्यक है।

अधर्म का विरोध करना ही धर्म है।


यदि अधर्म को सहन किया गया तो धर्म का नाश होगा।

महाभारत का युद्ध केवल राज्य प्राप्ति का संघर्ष नहीं था, बल्कि धर्म और अधर्म के बीच का निर्णायक युद्ध था।

(ग) नृसिंहावतार – भक्त की रक्षा

हिरण्यकशिपु ने स्वयं को ईश्वर घोषित कर दिया था और भक्त प्रह्लाद को सताता था। भगवान ने नृसिंह रूप धारण कर उसका अंत किया।


यह अवतार बताता है कि अधर्म चाहे कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, भक्त और धर्म की रक्षा के लिए भगवान स्वयं प्रकट होते हैं।

(घ) परशुरामावतार – अधर्मी क्षत्रियों का विनाश

जब क्षत्रियों ने धर्म का पालन छोड़कर अत्याचार करना शुरू किया, तब परशुराम ने उनका विनाश किया।


यह सिखाता है कि शासक यदि अधर्म का पालन करेगा तो उसका अंत निश्चित है।

2. धर्म और अधर्म की वास्तविक परिभाषा


धर्म :

  • सत्य का पालन
  • न्याय और समानता
  • कर्तव्य और मर्यादा
  • लोककल्याण और सेवा


अधर्म :

  • असत्य और अन्याय
  • भ्रष्टाचार और अत्याचार
  • स्वार्थ और दुराचरण
  • लोकहित की उपेक्षा
  • शास्त्रों में कहा गया है—“अहिंसा परमो धर्मः, धर्म हिंसा तथैव च।” यानी शांति सर्वोत्तम धर्म है, लेकिन अधर्मी का दमन भी धर्म है।

3. शास्त्रों में शासन का धर्म

  • प्राचीन भारतीय ग्रंथों में राजा का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है।
  • मनुस्मृति में स्पष्ट कहा गया है—राजा का प्रथम कर्तव्य धर्म की रक्षा है।
  • महाभारत के शांति पर्व में लिखा है—यदि राजा अधर्म का पोषण करेगा तो राज्य और प्रजा दोनों नष्ट हो जाएँगे।
  • अर्थशास्त्र में चाणक्य ने कहा कि राज्य तभी सुरक्षित है जब उसमें धर्म और न्याय की प्रधानता हो।
  • रामायण में रामराज्य को आदर्श बताया गया जहाँ न कोई शोक था, न भय और न रोग।


इस प्रकार धर्म और शासन का सीधा संबंध है।

4. वर्तमान शासक वर्ग की स्थिति

आज का शासक वर्ग धर्म की स्थापना की बजाय वोट-बैंक की राजनीति में उलझा है।

  • धर्मनिरपेक्षता का दुरुपयोग : वास्तविक धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है सभी धर्मों का समान सम्मान, किंतु आज इसका अर्थ हिंदू समाज को दबाना और विधर्मी तत्वों को बढ़ावा देना हो गया है।
  • तुष्टीकरण की राजनीति : एक वर्ग विशेष को खुश करने के लिए नीतियाँ बनाई जाती हैं, जबकि बहुसंख्यक समाज की उपेक्षा होती है।
  • मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण : केवल हिंदू मंदिर सरकार के अधीन हैं, जबकि अन्य धर्मों की संस्थाएँ स्वतंत्र हैं।
  • धर्मांतरण और आतंकवाद पर ढिलाई : ये अधर्म के सबसे बड़े रूप हैं, फिर भी शासन इन्हें रोकने में उदासीन है।यह प्रवृत्ति सर्वथा अनुचित और धर्मद्रोही है।

5. अधर्म के आधुनिक स्वरूप

भ्रष्टाचार – घूस और घोटाले से व्यवस्था चरमराई।


धर्मांतरण – लालच और भय से धर्म बदलवाना।


आतंकवाद – निर्दोषों की हत्या।


नैतिक पतन – पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों का क्षय।


जातिवाद – समाज को बांटने की राजनीति।


भोगवाद – स्वार्थ और विलासिता के लिए धर्म की उपेक्षा।

ये सब आधुनिक अधर्म हैं जिनका उन्मूलन आवश्यक है।

6. शासक वर्ग से अपेक्षाएँ


धर्म की रक्षा और अधर्म का नाश।

भ्रष्टाचार और अन्याय पर कठोर दंड।

शिक्षा में संस्कार और नैतिकता का समावेश।

मंदिरों और धार्मिक संस्थाओं को स्वतंत्रता।

आतंकवाद और धर्मांतरण पर पूर्ण रोक।

राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखना।

7. ऐतिहासिक उदाहरण

  • चाणक्य और चन्द्रगुप्त : चाणक्य ने नन्दों का अंत कर चन्द्रगुप्त को सिंहासन पर बैठाया। उनका उद्देश्य था—धर्म और राष्ट्र की रक्षा।
  • सम्राट अशोक : कलिंग युद्ध के बाद उन्होंने धर्म को राज्य की नीति बना लिया।
  • छत्रपति शिवाजी महाराज : उन्होंने हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना की, धर्म और संस्कृति की रक्षा की।
  • महात्मा गांधी : सत्य और अहिंसा को राजनीति का आधार बनाया।

इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि जब शासन धर्मनिष्ठ होता है तो राष्ट्र उन्नति करता है।

8. समाधान और मार्गदर्शन

  • गीता का आदर्श – हर शासक को गीता का अध्ययन करना चाहिए।
  • रामराज्य का मॉडल – शासन का उद्देश्य प्रजा सुखी बनाना होना चाहिए।
  • कठोर दंड नीति – अधर्मी और भ्रष्ट तत्वों पर कठोर दंड।
  • संस्कार शिक्षा – बच्चों और युवाओं को धर्मनिष्ठ शिक्षा।
  • धर्मनिरपेक्षता की पुनर्परिभाषा – वास्तविक धर्मनिरपेक्षता सभी धर्मों का सम्मान है, न कि धर्मविरोध।


भारत का इतिहास गवाह है कि जब-जब अधर्म बढ़ा, तब-तब धर्म ने विजय पाई।
श्री राम, श्री कृष्ण, श्री नृसिंह, श्री परशुराम—सभी ने यही दिखाया कि बिना अधर्म का नाश किए धर्म की स्थापना नहीं होती।

आज आवश्यकता है कि शासक वर्ग धर्मनिरपेक्षता के खोखले राग से ऊपर उठे और धर्म की वास्तविक स्थापना करे। तभी राष्ट्र सुरक्षित और समृद्ध होगा।

अंत में यही कहना उचित होगा—

“अधर्म का नाश किए बिना धर्म की जय असंभव है। अतः शासक वर्ग का धर्म है—धर्म की रक्षा और अधर्म का विनाश।”

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